मैं मान्यताओं पर नहीं लिखता
मैं सभ्यताओं पर नहीं लिखता
मैं वेदना पर भी नहीं लिखता
मैं खुद पर लिखता हूँ
इसलिए नहीं कि खुद पर लिखना आसान है
लेकिन किसी और का घर जलाने से पहले
मैं अपने घर का हर हिस्सा जला देना चाहता हूँ
किसी का जिस्म उधेड़ने से पहले
अपने जिस्म का हर जर्रा उधेड़ देना चाहता हूँ
ताकि मुझे हर लम्हा ये ध्यान रहे
कि घर जल जाने या जिस्म उधड़ जाने का दर्द कैसा होता है
और किसी और पर लिखी कविता मेरी कविता बन जाये।
लेकिन,
मेरे इस दर्द को जान लेने के बाद,
वो दर्द मेरा हो चलेगा।
अब वो कविता किसी और की नहीं हो सकती
वो कविता फिर मेरी ही बनकर रह जायेगी,
सच ही है कि सौ लोगों पर चाबुक चलाने के बाद,
चाबुक चलाने वाले का हाथ,
उन सौ से कहीं ज्यादा छलनी होगा।
मैं फिर अपना ही जिस्म उधेडूँगा, अपना ही घर जलाऊँगा
पहले से थोड़ा और ज्यादा
और इसी तरह एक दिन मेरे जिस्म के टुकड़े
मेरे घर की आग की आग में झुलस कर जल जायेंगे
और जो थोड़ा धुआँ उठेगा,
शायद कविता कहलायेगा।