आज जन्माष्टमी का दिन है| पूरे शहर पर कृष्ण की मोहिनी छायी हुई है| इसी उत्साह में सम्मलित यश ने भी सुबह स्नान किया और मंदिर में पूजा करने चल दिए| दर्शन उपरान्त वे मंदिर से निकले ही थे की उनकी पसंदीदा चाय की चुस्कियों ने कन्हैया की तरह ही आकर्षित कर लिया| क्यों न हो, रवि की चाय कुछ थीं ही ऐसी|
रवि: आइये महाराज, चाय का आनंद लीजिये
यश: हाँ भाई, पूजन तो हो गया, अब एक कप चाय बना दो, तो मन पूरी तरह तृप्त हो जाए
रवि: आज आप अकेले कैसे, आपके मित्र आकाश नहीं आये?
यश: हाँ दरअसल आज पूजा के चक्कर में उनसे बात नहीं हुई
सहसा, आकाश भी वहीँ आ पहुंचे
यश: आओ भाई बैठो, तुम्हारी ही बाट जोह रहे थे, बड़ी लम्बी उमर है तुम्हारी
आकाश (हँसते हुए ): जी नमस्कार, रवि भाई एक और चाय बना दो
यश: अरे, सीधे चाय, पहले मंदिर में हाथ जोड़ के तो आ जाओ
आकाश: भाई, तुम तो जानते हो, मेरा इनमे ज्यादा विश्वास नहीं
यश: विचित्र आदमी हो, दुनिया से उल्टा चलते हो| भाई इन्हे तो सारा संसार पूजता है| रुको, तुम्हे कुछ सुनाता हूँ
सूरदास जी कहते हैं: "जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कछु दरसाई| बहिरो सुने मूक पुनि बोले, रंक चले सिर छत्र धराई| सूरदास स्वामी करुणामय बार बार बंदौ तेहि पाई|"
आकाश: भई इनका मतलब भी समझा देते तो बड़ी मेहरबानी होती।
यश: मित्र, सूरदास जी कहते हैं कि जिनकी कृपा से विकलांग भी पर्वत लांघ सके, अँधा देख सके, बधिर व्यक्ति सुन सके, जो रंक को राजा बना दे, ऐसे करुणानिधान की मैं चरण वंदना करता हूँ| अतः तात्पर्य यह है कि हम सब उन्ही परमशक्तिशाली भगवान के अधीन हैं, और वही हमारी आखिरी मंज़िल| इसलिए हमें सदैव धर्म का कार्य करना चाहिए, जिससे भगवान की प्राप्ति हो...
आकाश: यह तुम्हारी दृष्टि है भाई, तुम्हे भगवान श्रीकृष्ण ही सबमे दिखते हैं| कल किताब में एक कविता पढ़ी थी मैंने, शायद दिनकर की ही थी, वे लिखते हैं:
"आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।"
मुझे तो भगवान प्रकृति में ही दिखते हैं| छोटे से छोटा किसान, सैनिक, मज़दूर जो इस धरती के ऊपर मेहनत से कार्यरत हैं, वही मेरे लिए वास्तव में वंदनीय हैं| इन्ही के कंधो पे भारत देश ऐसे टिका है, जैसे शेषनाग के सर पर धरती| मेरे मन में आध्यात्मिक एवं धार्मिक देवताओं के लिए पूरा सम्मान है, परन्तु मैं चाहता हूँ की जीवन भर इन्ही देवताओं की वंदना करूँ, जिससे देश और समाज दोनों का उपकार हो सके
यश: तुम्हारी दृष्टि अत्यंत नेक है भाई| भक्ति एक नजरिया है| सूरदास अंधे थे, पर उनकी नज़र में कृष्ण ही कृष्ण थे| वही उनका सारा जीवन थे| वहीं दिनकर हमेशा राष्ट्र एवं इसके लोगों के कवि रहे| भारत की जनता ही उनका भगवान थी, और उनका उत्कर्ष ही उनका धर्म|
आकाश: हाँ भाई, धर्म एवं भक्ति कोई जबरदस्ती या वादविवाद की चीज़ नहीं| जिसे पूजो वही भगवान है| कण कण में तुम्हे अपने ही देवता के दर्शन होंगे| कबीरदास जी ठीक ही बोले थे:
"ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब सांसो की सांस में"