सुमित्रानंदन पंत जी की कविता थी 'भारत माता' जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ थीं
"भारत माता ग्रामवासिनी।
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल…"
फणीश्वरनाथ रेणु की मैला आँचल भारत माता के उसी धूल भरे आँचल की कहानी है। मैला आँचल को 'गोदान' के बाद हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास भी माना जाता है। सन् १९५४ में प्रकाशित इस उपन्यास ने आँचलिकता की नयी विधा को जन्म दिया। रेणु एक गांव की कहानी के माध्यम से स्वातंत्र्योत्तर भारत के गांवों में जन्मे राजनैतिक चेतना व अंतर्विरोध को दर्शाते हैं। भारत की स्वतंत्रता इस उपन्यास को दो खंडो में बांट देती है और गांधीजी की हत्या के साथ ही उपन्यास अपने अंत की ओर पहुंचता है, और साथ ही पतन होता है उस आदर्श राजनीति का जिसका उन्होंने कभी स्वप्न देखा था। सामान्य लोगों में राजनीति पहुंचती तो है पर उसमें निष्ठा, आचरण, गंभीरता सब समाप्त हो जाती है।
कहानी उत्तर पूर्वी बिहार के कोसी नदी के शोक से ग्रसित पूर्णिया जिले के एक छोटे से गांव मेरीगंज में अस्पताल खुलने और उसके पश्चात यहाँ के लोगों और उनके साथ होती घटनाओं पर आधारित है। गांव के लोग अंधविश्वासी हैं, उनमें जातिगत भेदभाव अत्यधिक है,उनकी शिक्षा, मानसिकता और बुनियादी सुविधाओं पर पिछड़ेपन की छाप है।
"गाँव के लोग बड़े सीधे दीखते हैं; सीधे का अर्थ यदि अनपढ़, अज्ञानी और अंधविश्वासी हो तो वास्तव में सीधे हैं वे।"
प्रारम्भ में तीन किरदार प्रमुख रूप से सामने आते हैं। बालदेव, डॉक्टर प्रशान्त, दासी लक्ष्मी। बालदेव जी कांग्रेस के कार्यकर्ता है, जो जेल भी जा चुके है। गांव में उनका बहुत मान सम्मान है और ऐसा माना जाता है कि वो हर बात सोच समझ के करते है। लक्ष्मी महंत सेवादास की दासी है। कम उम्र में अनाथ होने के बाद से ही मठ पर उसका शोषण होता रहा। किन्तु इन सब के बावजूद वो एक बेहद समझदार और व्यवहार कुशल महिला है। बालदेव जी लक्ष्मी की मदद करते है, जो मन ही मन लक्ष्मी के लिए आकृष्ट होते है और दोनों का प्रेम बेहद पवित्र होता है।
डॉक्टर प्रशांत कुमार भी एक अनाथ बच्चा था लेकिन उसे एक आश्रम में संरक्षण मिला । वह डॉक्टरी पूरी कर विदेश में संभावनाएं तलाशने के स्थान पर अपने देश मे रहकर पिछड़े गांववालों की मलेरिया, काला अज़ार और हैज़ा जैसी बीमारियों का इलाज ढूंढने का निर्णय लेता है। पर गांव वालों की असल बीमारी तो गरीबी और जहालत है। निर्धन और विवश किसानों की स्थिति जानवरों से भिन्न नहीं है।
"बैलों के मुँह मे जाली का 'जाब' लगा दिया जाता है। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है- मूँह में जाली का 'जाब'... लेकिन खम्हार का मोह! यह नहीं टूट सकता।"
परन्तु समय के साथ किसानों में जागरण होना प्रारंभ होता है और स्थिति में परिवर्तन की आशाएं जाग जाती हैं। भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का आगमन होता है। बालदेव विरोध के लिए गांधीजी के चरखा कर्घा के माध्यम से आत्मनिर्भरता लाने के प्रयास करता है तो कालीचरण सोशलिस्ट क्रान्ति की राह अपनाता है। इसी प्रकार अन्य दल भी प्रवेश करते हैं।
"गाँव में तो रोज़ नया-नया सेंटर खुल रहा है- मलेरिया सेंटर, काली टोपी सेंटर, लाल झंडा सेंटर, और अब एक चरखा सेंटर!"
परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात यह सब उलझ कर रह जाता है। वामनदास की कहानी इसी उलझन को दर्शाती है। वह व्यथित है, गांधीजी से अपने प्रश्नों के उत्तर चाहता है। उसने अपना पूरा जीवन जिस कांग्रेस के लिए कार्य करते हुए जिनका विरोध किया, अंततः वह पार्टी उन्हीं सब कुरीतियों और षड्यंत्रों का शिकार बन कर रह जाती है।
बाकी राजनैतिक दल भी मात्र सत्ता के लोभी बनकर रह जाते हैं, और जातिगत जोड़ घटाव शेष रह जाता है।
बावनदास सोचता है, अब लोगों को चाहिए की अपनी अपनी टोपी पे लिखवा लें - भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, हरिजन!... कौन काजकर्ता किस पार्टी का है, समझ में नहीं आता।
इन सब द्वंद में उलझे प्रत्येक किरदार की अपनी समस्याएँ हैं अपनी उलझने हैं अपनी कहानी है जो सब कभी एक दूसरे से विपरीत हैं तो कभी साथ साथ चलती हैं। सभी मिलकर अंततः आँचल को उपन्यास का मुख्य नायक बना देती हैं।
रेणु की भाषा लेखन के बिल्कुल नये रूप को
जन्म देती है। उसमें चित्र है, लोक गीत हैं, कविताएँ है, ढोलक और अन्य वाद्य यंत्रों की झंकार है, चिड़ियों की चहचहाहट है और गाँवों की मिठास है। रेणु ने संथाल और मैथिल परगना के जिस लोक का निर्माण किया है वहाँ शब्दों को जैसे बोला जाता है वैसे ही कथानक में उतारा है।
सार- इस उपन्यास के द्वारा ‘रेणु’ जी ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का चित्रण करने की कोशिश की है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत इसका सहज, सरल और उसी परिवेश का होना है | उन लोकगीतों ने इस उपन्यास को अमर कर दिया है, जो आज के परिवेश में कहीं खो गए है। भारत को जानने के लिये यह उपन्यास बहुत अहम स्थान रखता है।
कवि! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोपड़िया में मधुरस बरसा रहे हैं...
स्वयं रेणु जी के शब्दों में :-
"इसमें फूल भी हैं शूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है, चन्दन भी सुन्दरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।
कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा। जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।"
यह उपन्यास को पढ़के आप इसके पात्रों के साथ डूबने उतरने लगते है और स्वयं को उसी ग्रामीण परिवेश में महसूस करने लगते है, जो हम में से बहुत कम लोगों ने जिया है और यही कारण है जो इस उपन्यास को एक असीम कृति बना देता है।