महाभोज उपन्यास मुन्नू भंडारी द्वारा रचित राजनीतिक पृष्ठभूमि पर आधारित एक यथार्थवादी उपन्यास है जिसमें उन्होंने वर्षों से चली आ रही सत्ता के मोह एवं उसके दुरुपयोग की दुष्परंपरा पर चोट की है। उपन्यास की पहली चीज जो पाठकों को आकर्षित करती है वह है इसका नाम। सामान्य तौर पर 'महाभोज' का अर्थ किसी की मृत्यु पर आयोजित होने वाले भोज से होता है इसे पढ़ते ही पाठक कौतूहल से भर जाता है कि आखिर लेखिका किसके महाभोज की बात कर रही हैं।
दलित मनुष्य नहीं है, केवल वोटर है। राजनीतिक पार्टियों की इस मानसिकता को मन्नू भंडारी ने इस उपन्यास में उजागर किया है। महाभोज लिखने की प्रेरणा के मूल में 1977 में बिहार के 'बेलछी गाँव' का सामूहिक दलित हत्याकांड था। यह समय दलित चेतना की विकास का था, जब इस वर्ग के कुछ लोग अपना हक मांगने लगे थे। सामन्तवादी लोगों को यह रास न आ रहा था। कहानी के एक पात्र जोरावर का यह कथन उन लोगों की सोच का यथार्थवादी चित्रण है-
“इन हरिजनों के बाप-दादे हमारे बाप-दादों के सामने सिर झुकाकर रहते थे। झुके-झुके पीठ कमान की तरह टेढ़ी हो जाती थी। और ये ससुरे सीना तानकर आँख में आँख गड़ाकर बात करते हैं, बर्दाश्त नहीं होता यह सब हमसे।”
महाभोज 'सरोहा' नामक गाँव के चारों ओर लिखी हुई है जहाँ विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उपन्यास यह दर्शाता है कि जातिगत समीकरण किस प्रकार भारतीय राजनीति का अनिवार्य अंग बन गया है। भारतीय राजनीति में दलितों को केवल वोट बैंक की भांति माना जाता है। विपक्ष दलित युवक की मौत को अपना सौभाग्य समझता है, चूँकि इसके माध्यम से वो अपना स्वार्थ साध सकते हैं। वहीं पक्ष दलितों के साथ हमदर्दी का प्रदर्शन तो करता है परंतु अपराधी के बड़े वोट बैंक में प्रभावशाली होने के कारण उसे बचाने की पूरी कोशिश करता है। मन्नू भंडारी ने राजनीति में सिद्धांतों के पतन का भी विवरण किया है। सत्ता पक्ष के कुछ नेता यूँ तो सिद्धांतों के नाम पर विरोध करते हैं, पर बड़े पद के प्रलोभन मिलने पर शांत बैठ जाते हैं। राजनेता गाँधी-नेहरू के सिद्धांतों पर चलने का दिखावा करते हैं भले ही वह उनके आदर्शों से कोसों दूर हों।
उपन्यास में ऐसे ही एक राजनेता का चित्रण किया गया है जो कुत्रिम आदर्शों के चादर में अपनी वास्तविकता को छिपा रखते हैं। यह व्यक्तित्व उन्हें कई कठिन परिस्थितियों को सुलझाने में मदद करता है जो समकालीन राजनीति की विकृत स्थिति को इंगित करता है।
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। आमतौर पर यह समूह किस प्रकार अपने कर्तव्य को भूल कर अपने स्वार्थ को साधने के लिए राजनेताओं की चाटुकारिता करने लगता है, इसका भी मन्नू भंडारी ने यथार्थवादी विवरण किया है जो वर्तमान समय के लिए भी काफी प्रासंगिक है। इस उपन्यास में नौकरशाही की कमियों को भी उजागर किया गया है। नौकरशाही रिपोर्ट पहले से तैयार कर देती है एवं औपचारिक रूप से गवाही और साक्ष्य जुटा कर किसी प्रकार उस परिणाम पर पहुँच जाती है। नौकरशाही की तरफ लोगों के अविश्वास को भी उपन्यास में दिखाया गया है। सरोहा के लोग डर कर गवाही नहीं देते क्योंकि उनका नौकरशाही द्वारा दी गयी सुरक्षा पर भरोसा नहीं है। नौकरशाही के कुछ लोग जो अच्छा करना चाहते हैं उन्हें भी ट्रांसफर आदेशों द्वारा दबा दिया जाता है।
उपन्यास के किरदार काफ़ी रोचक हैं और अपने आप में विशिष्ट हैं। उपन्यास में दा साहब जैसे सत्ताधारी नेताओं को दिखाया गया है जो समाज में आदर्शवाद का दिखावा करके आम जनता से अपना स्वार्थ साधते हैं और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्क्ष रूप से उनका शोषण करते हैं। वहीं लखन जैसे चमचों को भी दिखाया गया है जो नेताओं की चाटुकारिता करके अयोग्य होने के बाद भी सत्ता में आने का प्रयत्न करते हैं। कहानी में बिसू नामक एक गरीब किसान के बेटे को भी दिखाया गया है जो अपने ही जैसे पीड़ितों के लिए संघर्ष करते मारा गया। अकस्मात घटना में मौका पाते ही अपनी रोटी सेंकने वाले विपक्ष को भी सुकूल बाबू के रूप में बड़ी ही प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। साथ ही साथ सत्ता के आधीन आकर कैसे सभी संस्थाएं नेताओं की मुनादी करती हैं, ये भी इस उपन्यास में बखूबी दिखाया गया है। जोरावर, डी० आई० जी० सिन्हा, मशाल पत्र संपादक दत्ता बाबू इसके बहुत अच्छे उदाहरण हैं। कहानी में एक पात्र बिन्दा है जो मासूम है लेकिन अंततः राजनीति का शिकार बन जाता है।
‘महाभोज’ भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुसंगतियों को प्रत्यक्षरूप से दर्शाने में सफल रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि उपन्यास में सभी पात्रों का कुशल चित्रण और उनके बीच अच्छा सामंजस्य बिठाया गया है। उपन्यास की भाषा शैली एकदम सरल एवं सुबोध है। कहीं कहीं भाषा का प्रयोग पात्रों की अपनी स्थानीय भाषा के अनुसार किया है। निश्चय ही महाभोज एक कालजयी उपन्यास कहलाने योग्य है। कालजयी इसलिए भी कि मन्नू भंडारी ने यह उपन्यास लिखकर अपने समकालीन परिवेश की उस जड़ता को मिटा दिया, जिसमें अमूमन महिलाएं भावनात्मक रचनाओं तक ही सीमित थीं।