पद्मश्री डॉ धर्मवीर भारती का उपन्यास 'गुनाहों का देवता' एक बेहद लोकप्रिय और सदाबहार रचना मानी जाती है। इसकी अपार प्रसिद्धि इसी बात से समझी जा सकती है कि विगत वर्षों में भारत की विभिन्न भाषाओं में इसके सौ के करीब संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। 1959 में प्रकाशित यह उपन्यास आदर्शवाद की भूमि पर पनपते हुए 'युटोपियन' प्रेम को रेखांकित करती है। अपनी युवावस्था में लिखी इस प्रेम कहानी को, भारती जी ने एक ऐसा मॉडर्न रूप दिया है कि युवा पीढ़ी आज भी इसे उन्माद और जज़्बात का जीवनदर्शन मानती है।
ये कहानी चंदर और सुधा के बीच अव्यक्त किस्म के प्रेम की है - प्रेम जो दोनो ही पूजते हैं किन्तु कोई भी स्वीकार करने की चेष्टा नहीं करता और ना स्वीकृति की ज़रूरत ही समझता है। दोनो एक दूसरे को खुश तो देखना चाहते हैं पर सामाजिक बेड़ियों से इतने जकड़े हुए हैं कि आदर्शवाद को मन में बसा कर अपने इस प्रेम की बलि देना ही उचित समझते हैं। कहानी की शुरुआत से ही उनके बीच परस्पर झगड़े और प्रेम के प्रसंग दिखाए गए हैं। चंदर सुधा का देवता था और सुधा ने हमेशा एक भक्त की तरह ही उसे सम्मान भी दिया, वहीं चंदर अंजाने में ही सही पर सुधा का सस्नेह ख़याल रखता था! "घर भर में अल्हड़ पुरवाई की तरह तोड़-फोड़ मचाने वाली सुधा, चंदर की आंख के एक इशारे से शांत हो जाती थी।", दोनों का एक दूसरे के प्रति अधिकार इतना स्वभाविक था कि जैसे शरद की पवित्रता या सुबह की रोशनी।
उपन्यास को दो भागों में बाँटा जा सकता है, जहाँ दोनो ही विचारप्रवाह अपनी अलग पहचान रखते है। जहाँ शुरुआती भाग में भारती जी ने एक सैद्धान्तिक प्रेमी की मानसिकता दर्शायी है वहीं दूसरे भाग में प्रेम में स्थापित तृष्णा को उकेरा है और बताया है कि वास्तव में प्रेम सभी सिद्धांतों के परे है। कहानी में ये मोड़ तब आता है जब सुधा का विवाह हो जाता है और चन्दर एवं सुधा अलग हो जाते हैं। फिर नायक, नायिका के वियोग में, इतना आहत हो जाता है कि अपने ज़हन में बैठाए प्रेम की परिभाषा को शंकित नज़रों से देखने लगता है। चन्दर एकांत खोजते हुए एक ईसाई लड़की, पम्मी की शरण में पहुँचता है, जो खुद आत्मिक और शारीरिक प्रेम के द्वंद में फँसी है। उसे ऐसा लगने लगता है कि प्रेम और कुछ भी नहीं अपितु सिर्फ मांसलता की ललक है, बिना वासना के प्रेम नही हो सकता! पूरे उपन्यास में प्रेम को लेकर सभी पात्रों का अपना एक नज़रिया है। कोई कृष्ण बनने के लिए 'गुनाह' किए जाता है तो कोई मीरा बनकर अपने वैवाहिक जीवन के साथ न्याय नहीं कर पाती, किसी को अपनी मृत पत्नी पर शक है तो कोई अपने पति से नाराज़ है। अलग अलग पात्र ने बख़ूबी अलग अलग रंग सामने लाए हैं। उपन्यास के हर पड़ाव पर तराजू की सूई 'पवित्र प्रेम' और 'वासना' के बीच अटकी रहती है। कभी आदर्श का पलड़ा भारी पड़ता है तो कभी मांसलता का!
उपन्यास में ना केवल भावना और वासना के बीच संघर्ष का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है बल्कि आधुनिक शिक्षित मध्यवर्गीय समाज की ढुलमुल मानसिकता और रूढ़िग्रस्तता को भी बखूबी दर्शाया गया है। डॉ शुक्ला, जो कि कहानी के तथाकथित बुद्धिजीवियों में शामिल होते हैं, अंतर्जातीय विवाह पर उनके खुद के विचार कुछ इस प्रकार से हैं, "...जब अलग अलग जाति में अलग अलग रिवाज हैं तो एक जाति की लड़की दूसरी जाति में जाकर कभी भी अपने को ठीक से संतुलित नहीं कर सकती", किन्तु फिर सुधा की मरणोपरांत उनके इन्हीं खोखले आदर्शों को बहुत गहरी ठेस पहुँचती है। इसके अतिरिक्त यह उपन्यास नारी दृष्टिकोण से भी विशेष महत्व रखता है। पम्मी वासना के खोखलेपन और तलाक की समस्या को उभारती है। सुधा मध्यवर्गीय नारी समाज की महिला के कई रूपों को आगे करती है तो गेसू आजीवन कुमारी रहने का निश्चय करके नारी के त्याग का एक अलग रूप लोगों के सामने रखती है। बिनती गांव के उन लड़कियों को दर्शाती है जो शहर के कोरे आदर्शवाद से दूर रहकर ज़िन्दगी को यथार्थवादी चश्में से देखने की कोशिश करती है और अंत तक आते आते सुधा भी परिस्थितयों के अधीन होकर धार्मिक और सामाजिक उत्थान के नाम पर पुरुषवाद को बढ़ावा देने वालों पर तीक्ष्ण व्यंग्य साधते हुए कहती है," ...हिन्दू गृह तो एक जेल होता है जहां कैदी को उपवास करके प्राण त्यागने की भी इजाजत नहीं रहती, अगर धर्म का बहाना ना हो।" इसी प्रकार धर्मवीर जी ने हर मूल्य, उसूल और सिद्धांत को जाँचा है और पाठकों को उस रण-मध्य में लाकर खड़ा किया है जहाँ वही सिद्धांत टिक सकते हैं जिनकी नीव यथार्थ के धरातल में है।
यह कहानी हर उस पुस्तक प्रेमी को पढ़नी चाहिए जिसे भावों के अनियंत्रित वेग का अनुभव करना हो। कहानी प्रेम को एक नई परिभाषा देती है - प्रेम पवित्रता ही नहीं, वरन् त्याग की पराकाष्ठा है। साधारण भाषा में लिखी गई यह पुस्तक समाज का दर्पण दिखाती है! लेखक ने इतने सरल दृष्टांत बनाए हैं कि किरदारों से एक जुड़ाव सा महसूस होने लगता है। उपन्यास का अंत बेहद मार्मिक है जो निश्चित ही पाठक को झिंझोड़ देता है और अंत तक पढ़ने पर एहसास होता है कि लेखक द्वारा किया गया कार्य असाधारण है।