परिचय :
"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ता: ।
कालो न यातो वयमेव याता:
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा: ।।"
अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगो ने हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, हम ही समाप्त हो गए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं।
अपने गर्भ में यह ज्ञान लिए विष्णु सखाराम खांडेकर द्वारा रचित बहुप्रशंसित मराठी पौराणिक उपन्यास, ययाति, मानव की वासना, आसक्ति, मोह और महत्वकाँक्षा की कहानी है। ययाति की कथा महाभारत का एक उपाख्यान है परंतु खांडेकर का ययाति महाभारत के ययाति से भिन्न है। कथानक में थोड़ी स्वतंत्रता लेकर खांडेकर ने ययाति के माध्यम से नश्वरता और निरर्थकता के बीच झूलते मानव जीवन के सुख को समझने और उस सुख को प्राप्त करने के संघर्ष, दुविधा और भ्रम को सामने रखा है।
उपन्यास को १९६० में साहित्य अकादमी पुरस्कार और १९७४ में ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
कथानक :
कहानी हमें बताती है कि किस प्रकार स्वर्ग पर विजय पाने वाले सम्राट नहुष का पुत्र ययाति, वासना और महत्वकांक्षा से भरा एक महान योद्धा बनता है। उसके विपरीत है उसका तपस्वी बड़ा भाई यति, जो कि बचपन में ही राज पाट त्याग देता है। बाद में कथानक में दैत्यगुरु शुक्राचार्य और असुरों के राजा, वृषपर्वा का प्रवेश होता है। उनकी पुत्रियाँ देवयानी और शर्मिष्ठा एक दूसरे की प्रतिद्वंदी हैं। एक रोचक प्रसंग में देवयानी का विवाह ययाति से हो जाता है और राजपुत्री शर्मिष्ठा को उसकी दासी बनना पड़ता है।
इनके अलावा देवगुरु बृहस्पति का पुत्र कच भी इस उपन्यास का एक प्रमुख पात्र हैं और परस्पर वैचारिक द्वंद में फँसे पात्रों के बीच एक सुलझे व्यक्ति की भाँति प्रतीत होता है।
"मानव जीवन में आत्मा रथी, शरीर रथ, बुद्धि सारथी और मन लगाम है, विविध इन्द्रियां घोड़े हैं, उपभोग के सभी विषय उसके रास्ते हैं और इन्द्रियां और मन से युक्त आत्मा उसका भोक्ता है "
कच के ये शब्द उसके दार्शनिक विचारों के परिचायक हैं और कहानी में अन्य किरदारों को ज्ञान के मार्ग पर प्रेरित करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं लेकिन उसके इन शब्दों का ययाति पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता।
ययाति के भीतर शर्मिष्ठा के लिए भावनाओं का विकास होता है और वह उसके साथ प्रेम प्रसंग रचाता है। एक श्राप के कारण उसे वृद्धावस्था भोगनी पड़ती है, पर वासना मे अंधा ययाति अपने पुत्र पुरु का यौवन भस्म कर पुनः यौवन प्राप्त करता है। पूरा जीवन भोग को समर्पित कर भी ययाति की वासना कभी तृप्त नहीं होती।
" उपभोग से वासना कभी तृप्त नहीं होती। उपभोग से वासना की भूख उसी तरह बढ़ती है जिस तरह आहुतियां पाकर अग्नि अधिक भभकती है। "
सारांश :
कहानी कई ऐसे दिलचस्प मोड़ लेती है जो पाठक को जीवन दर्शन के विषय में विचार करने पर विवश कर देती हैं। उपन्यास के पीछे मुख्य विचार है विभिन्न चारित्रिक लक्षणों का चित्रण और उनसे व्यक्ति के जीवन में पड़ने वाले प्रभाव। खांडेकर प्रत्येक पात्र के मन में उतरते हैं और कहानी कभी ययाति कभी शर्मिष्ठा और कभी देवयानी के दृष्टिकोण से बताते हैं। उपन्यास की काव्यात्मक भाषा इस विरल प्रयोग को निखार देती है।
प्रत्येक मोड़ पर बहुत सारे अंतर्निर्मित भूखंड उजागर होते हैं जो भावनाओं के इस खेल में जटिल समस्याएँ खड़ी करते हैं और सुख का मूल ढूँढ़ते मनुष्य की विवशता दर्शाते हैं।
निष्कर्ष :
यह उपन्यास वर्तमान समय में सुख प्राप्त करने के लिए भोग के पीछे भागते मानव के लिए एक पहर ठहर कर सोचने का स्थान है। प्रत्येक पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए यह उपन्यास बहुत ही सुंदरता से अध्यात्म को हमारे समक्ष रखने में सफल हुआ है।
"शरीर सुख मानव जीवन का मुख्य निकष नहीं है। आत्मा का सन्तोष ही वह निकष है!"