शाम की क्लास ख़त्म होने के बाद रोहन कैंटीन के बाहर बैठा चाय पी रहा था। पर शायद आज उसका ध्यान चाय से कहीं ज्यादा उस ढल रहे सूरज पर था। मानो जैसे ढलते हुए सूरज की लालिमा उसे उदास कर रही हो। अचानक एक जानी पहचानी आवाज़ उसे सुनाई दी। सामने कौशल थे। वो उससे एक साल सीनियर थे।
कौशल - कैसे हो रोहन, हाँ माना ढलता सूरज ख़ूबसूरत होता है, पर तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है।
रोहन - अरे नहीं नहीं कौशल ... आज तो बल्कि ढलता हुआ सूरज मन और उदास कर रहा है।
कौशल - शाम कभी मन उदास नहीं करती। इस वक़्त तो बाक़ायदा पूरा माहौल ख़ुशगवार हो जाता है।
रोहन - पता नहीं कौशल पर ऐसा लग रहा है सामने ढलता सूरज नहीं , एक आइना देख रहा हूँ। अभी थोड़ी देर पहले सिद्धार्थ आकर बैठा था। इश्क़ में तंग है। वही सदियों पुरानी मुसीबत पर निज़ात नजात फिर भी लोगों से जुदा है। पता नहीं मुहब्बत कब नज़ाकत से बदलकर तोहमत और ज़हमत पर आकर रुकने लगी।
कौशल - अरे! ऐसी भी क्या मुश्किल हो चली है? असल मुहब्बत आज भी सलामत है, नादानी में उलझकर रह जाने वाले इसकी तोहमत करते हैं, इसको ज़हमत समझते हैं। एहसासों को ज़ाहिर करना होता है, साबित नहीं। अपनी समझ पैदा करना ज़रूरी है।
रोहन - साबित करने पे मुझे गुलज़ार का एक शेर याद आता है, “मेरी कोई ख़ता तो सबित कर, जो बुरा हूँ तो बुरा साबित कर", इसको बहुत हद तक मुनासिब देखता हूँ । हम अक़्सर पढ़ते हैं, लिखने वाला अपनी साथी को बेवफ़ा कहता है, ये सिलसिला कुछ रिवाज सा बन गया है। मैं आयुषि को भी काफ़ी वक़्त से जानता हूँ, गरचे सिद्धार्थ उसकी शिकायत कर रहा था पर मैं हक़ीक़त से बेख़बर भी नहीं हूँ । मैं उसकी बात जिस तरह से सुन सकता हूँ उस तरह से यक़ीन नहीं कर सकता।
कौशल ( मज़ाकिये तेवर में )- इल्ज़ाम दिल दुखाने वाला था क्या ?
रोहन - हाँ, था तो संगीन ही पर मशला ये नहीं है और ज़ाती ज़िंदगी में दख़ल देना सही नहीं। मैं दोनों के नज़रिए से मस’अले को देखता हूँ और मुझे कोई मस’अला ही नहीं दिखता। बात करने की ज़रूरत है एकबार, बस।
कौशल - ये इंसानी फ़ितरत है, सबसे आसान होता है सामने वाले का कसूर निकल देना। कोई अपनी बात, गुमान को पहले रखने से गुरेज़ नहीं करता। किन्तु कोई भी अपने गरेबान में झांककर नहीं देखता। बेवफ़ा , धोखा , ये सब ऐसे शब्द हैं जो की किसी भी अधूरी कहानी में लगभग सुनने को मिल जाते हैं। मुश्किल नहीं हैं, मगर फिर भी हर पक्ष अगले को ही कहता है, कोई ये नहीं मानता कि गलती उनकी भी हो सकती है।
रोहन - बिलकुल , सिद्धार्थ यहाँ पर ख़ुद को साबित करने की ऐसी ज़िद में था , उसे अंदाज़ा भी नहीं हो पा रहा था कि सम्भव है कुछ ग़लतफहमी हुई हो। ताली एक हाथ से तो नहीं बजती !
कौशल - एकदम ! एकबारगी, उन्होंने मद्देनज़र रखते हुए मान लिया होता और किसी एक ने भी बात करने को कदम उठाया होता तो ये बवाल न होता। ख़तावार साबित करने की ज़द में बुनियादी कदम को अक्सर भूलते हुए देखा है मैंने। इत्मिनान पर ख़ुमार साहब का एक बेहद अज़ीज़ शेर है मेरा - " कहूं कैसे कि वो बेवफ़ा है , मुझे उसकी मजबूरियों का पता है " याद आ गया।
रोहन - हाय , क्या ख़ूब कहते हैं वो। इनके शेरों से तसल्ली दिल के गहराई में उतरती है। बात मगर यहाँ भी ठहरती नहीं। ख़ुमार सा’ब ना शिकायत करते हैं ना इल्ज़ाम धड़ते हैं मगर हमें एक धोखेबाज़ी की निशानियाँ मिल ही जाती हैं शेर में और फिर बात वहीं पर आकर रुक जाती है। बचते बचाते भी इल्ज़ाम किसी के सर आ ही जाता है।
कौशल - हाँ, वही मैं भी सोचता हूँ। किसी के कह भर देने से लोग उसे सच क्यूँ मान लेते हैं, बिना साबित हुए उसे हक़ीक़त मानना कितना ग़लत है, इसपे तो कोई दोमत हो ही नहीं सकता। रिश्ते को कामयाब रखने के लिए दोनों पक्ष ज़िम्मेदार होने चाहिए। ख़ुमार साहब दक़ियानूसी नहीं हैं , वह ख़ुद को मौजूदा समाज का हिस्सा मानते हुए लिखते हैं। उन्हें खबर है कि उनपे भी कुछ बंदिशें हैं, कुछ नियम हैं जो उन्हें किसी पर भी बेख़्याल तोहमत धड़ने से रोकता है। हर रिश्ते की अपनी मर्यादा होती है, अपने नियम होते हैं, हो सकता है उन नियमों का तुमने पालन ना किया हो और इसी कारण तोहमत तुमपे लगाया हो। वो सोचने के लिए एक खुला मैदान देते हैं।
रोहन - हाँ कौशल , उनका पैग़ाम बड़ा ख़ूबसूरत है। शिकायत हो तो सामने मुहल्ले में जाहिर करके उसे रुसवा ना करो। ये हर रिश्ते की मिसाल होनी चाहिए।
दोनों एक लम्बी साँस भरते हैं।
कौशल - बातों बातों में मेरी चाय भी ठंडी हो गयी। तुम्हारी पर तो छाली जम चुकी है। चलो, दूसरी लेकर आते हैं।
( दोनों चाय लेने कैंटीन में जाते हैं )