"प्रेम ने मनुष्य को मनुष्य बनाया ! भय ने उसे समाज का रूप दिया !अहंकार ने उसे राष्ट्र में संगठित कर दिया !"
"शिक्षा देना संसार अपना सबसे बड़ा कर्तव्य मानता है , लेकिन शिक्षा इंसान को ' आदर्श व्यक्ति ' नहीं बनाता बल्कि एक ' टाइप ' बनाता है !"
"......इसलिए नहीं डरते कि मरना बहुत खराब होता है, इसलिए डरते है जीना अच्छा लगता है।"
यह महज वाक्य नहीं हैं बल्कि कुछ सवाल हैं जिनसे हम मुँह मोड़ते आये हैं, क्यूंकि मनुष्य को ' सामाजिक प्राणी ' का तमगा पहनाकर हम उसे समाज से प्रश्न करने से ही वर्जित कर देते हैं। लेकिन जब अज्ञेय द्वारा रचित ' शेखर :एक जीवनी ' में आप दोबारा अपने जीवन को शेखर की नज़रों से जीते हो तो समाज के आधार और परम्पराओं पर ये मौलिक सवाल खुद-बा-खुद सामने आ खड़े होते हैं। शेखर इस उपन्यास का नायक मात्र नहीं बल्कि एक विचारधारा के रूप में नज़र आता है, एक ऐसी विचारधारा जिससे जुड़ने पर हर पाठक अपनापन महसूस कर पाता है। शेखर के जन्म से लेकर फाँसी के तख्ते तक पाठक शेखर के साथ चलता है और उसकी विचारधारा में बंधने पर भी एक वैचारिक स्वतंत्रता महसूस करता है। अज्ञेय की "शेखर : एक जीवनी" को मात्र एक जीवनी कहना अन्याय होगा। अज्ञेय के अनुसार ये एक व्यक्ति का 'निजी-दस्तावेज' मात्र नहीं है, अज्ञेय इसे उस समय के समाज का प्रतिबिम्ब मानते हैं, एक ऐसा प्रतिबिम्ब जो समाज की नग्न तस्वीर पाठक को दिखाता है।
शेखर का पात्र अज्ञेय द्वारा देखे गए एक रात के "विज़न" को शब्दबद्ध करने का प्रयत्न है | ये कहना अनुचित नहीं होगा कि शेखर का जन्म और मृत्यु एक रात में होते हैं। भूमिका में ही लेखक ने यह कह दिया है की प्रस्तुत जीवनी को पाठक अज्ञेय की जीवनी के रूप में न पढ़े | ऐसा करने से आप शेखर को समझ नहीं पाएंगे | शेखर को समझने के लिए हमें खुद के अंदर एक शेखर को ढूँढना होगा | उसके द्वारा किये गए कृत्यों को समाज के तराजू में तोलना हमारा मकसद नहीं होना चाहिए | लेखक ने हमारे सामने एक चरित्र रखा है, जैसा वो है उसके वास्तविक स्वरूप में, जिसमे कोई सामाजिक मिलावट नहीं है |
बाल्य अवस्था से ही शेखर की उत्सुक और आक्रामक प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है | जैसे-जैसे शेखर की कहानी आगे बढ़ती है, हम पाते हैं कि शेखर एक साधारण बालक होते हुए भी कुछ अलग है, वो अपने आस-पास की चीज़ों को देखता है और उन पर सवाल करता है, कुछ ऐसे सवाल जो कभी डांटे जाने के डर से या फिर समाज के डर से दबा दिए जाते हैं | लेकिन शेखर में इतनी आत्मशक्ति है की वो खुद ही उन सवालों का जवाब ढूंढना चाहता है| शेखर की शिक्षा परंपरागत नहीं थी, शेखर ने अपनी आस पास की चीज़ों को अपना गुरु माना और आस पास चीज़ों की समीक्षा कर ज्ञान अर्जित किया | उसने कभी अपनी बहन सरस्वती से ज्ञान प्राप्त किया तो कभी पशु-पक्षियों से | यही कारण था कि वो समाज के रूढ़िवादी नज़रिये से हटकर कुछ अलग सोच पाया, और लीक से अलग होकर विभिन्न विचारों को समझ पाया। ऐसा नहीं है कि हमारा शेखर 'परफेक्शनिस्ट' है। शेखर जवाबों की खोज में भटकता है, ठोकर भी खाता है, गिरता है, लताड़ा और पीटा भी जाता है, लेकिन शेखर अपनी जिज्ञासाओं से पीछे हटना नहीं जानता।
अज्ञेय विद्रोह का मतलब जानते थे और परम्पराओं का अनुसरण उन्हें उतना ही कठिन जान पड़ता था जितना शेखर को। जगह-जगह किताब में जिस प्रकार संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू एवं अन्य भाषाओं में लिखे गए साहित्य का सीधा प्रयोग किया गया है इससे यह साफ़ दिखता है की अज्ञेय साहित्य को भाषा की सीमाओं में बांधना उचित नहीं समझते। यह एक विद्रोह के रूप में देखा जा सकता है उन बुद्धिजीवियों की सोच के खिलाफ जो अंग्रेजी का प्रयोग होने पर रचनाओं को साहित्य मानने से इंकार करते हैं।
“मुझे विश्वास है कि विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं।”
कई ऐसी घटनाएं सामने आती हैं जब शेखर समाज द्वारा निर्मित बंधनों को तोड़ने का प्रयत्न करता है| वैसे तो शेखर के विद्रोही स्वभाव के कई सारे उत्प्रेरक माने जा सकते हैं, किंतु उसकी माँ का उसके ऊपर अविश्वास इसे और भी सबल बनाता है | शेखर अपनी बहन सरस्वती को अपना गुरु मानता है | सरस्वती के लिए शेखर के मन में सम्मान और प्रेम है और वह उससे अपने सवालों का जवाब मांगने का प्रयत्न करता है |सरस्वती जब शेखर से दूर जाती है तो सिर्फ शेखर नहीं टूटता हर पाठक टूटता है, शारदा में हर पाठक अपने जीवन के पहले प्यार को साफ़ देख पाता है, यही बातें 'शेखर- एक जीवनी ' को एक उपन्यास से ऊपर उठाकर हर पाठक की आत्मकथा बना देती है।
शेखर हिंसा और अहिंसा, व्यक्ति और समाज, स्त्री और पुरुष, पश्चिमी और भारतीय आदि पहलुओं पर भी गहरा चिंतन करता है। शेखर के जीवन के साथ साथ हमे समकालीन भारत के बहुत सारे पहलु देखने को मिलते है | तब के समाज की मानसिकता, अंग्रेज़ों के विरुद्ध आंदोलन और भारतीय नौजवानों में अंग्रेजी और अंग्रेजी वस्तुओं को लेकर कैसे विचार थे इसका भी एक विवरण हम देख पाते हैं । यदि ये कहा जाए की शेखर नहीं, उस समय का समाज हमसे बात करता है तो बिल्कुल गलत नहीं होगा। गौरतलब है कि यह महज इस बात का प्रमाण है कि इंसान भले ही खुद को कितना ही अलग या अद्वितीय क्यों ना माने लेकिन वो समाज का एक प्रतिफल मात्र ही है।
यह उपन्यास पाठक को अपनेपन की भावना के साथ जोड़े रखता है और हर पंक्ति उसे सोचने पर विवश करती है। सरलता से जिस प्रकार जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से पाठक पर प्रभाव छोड़ देने वाले विचारों को भाषिक सौंदर्य के साथ इस उपन्यास में शब्दबद्ध किया गया है, वह अचम्भित करता है।