काश! इस आलम में खुदा ने
एक कमरा ऐसा भी बनाया होता
जिसके उरूज के चर्चे इस बात पे होते
कि जर्जर पड़े इस कमरे से,
एक तड़पती, बद-हवास चीख सुनाई देती है।
वो चीख,
जो कभी किसी ने सुनी नहीं,
जिसके हर एक लफ्ज़ को समाज ने
अपने घिसे पिटे तराज़ू में तोला नहीं,
मेरी जात से जोड़ा नहीं,
मेरे ईमान पे सवाल उठाया नहीं।
खैर, सच्चाई तो ये है साहब कि
समाज तोलेगा भी,
ऊंगली उठाएगा भी,
सोचने पर मजबूर भी करेगा कि
"चीखने का मक़ासिद क्या है?"
वैसे भी सुना है कि
'दीवार के भी कान होते है' और
शायद इस कमरे के भी दीवारों के परे,
वहीं कुछ जिंदा लाशों का हुजूम खड़ा, सुन रहा होगा,
जो शान से खुद को इस समाज का हिस्सा बताता है।
लेकिन हज़रात गौर कीजिए!
एक सच्चाई ये भी है कि इन तमाम रिवायत के बावजूद,
ये बुर्जदिल चीख, आज भी मेरे ज़ेहन के पहले सफ़ में खड़ी मिलेगी।
बस गुज़ारिश आपसे इतनी है कि
देखने के साथ साथ सुनने का नज़रिया भी बदलिए,
क्योंकि ये चीख, चीख नहीं!
आपके जे़हनियत का एक तमाशा है,
जिनके तमाशाई आप खुद है.....