जब ज़बानी आना चाहे पुरानी पीड़ा कभी,
बोलती हुई तस्वीरों की सुनता हूँ कभी,
किसी अहसान तले जो कुचला जाऊँ कभी,
तो लिखता हूँ।
घिसकर चपटे करने हो नुकीले दाँत कभी,
सीधे कह न पाऊॅं कोई बहलाती बात कभी,
लाख काटे न कटे कोई विरह की रात कभी,
तो लिखता हूँ।
घनेरी रात में न जागा हो कोई मीत कभी,
यादें जगाने लगे अरसे से सोई प्रीत कभी,
धड़कनें जो बुदबुदाने लगे कोई गीत कभी,
तो लिखता हूँ।
जब राह दिखाता तारा निहाँ हो जाए कभी,
पंछी, कभी दरख़्त कोई बात कह जाए कभी,
बिसराया अक्स कोई, गर्दिश कर जाए कभी,
तो लिखता हूँ।
सियाह रंग-ए-दिल गुलाब जैसा करना हो कभी,
गिरवी दिल का कोई हिस्सा करना हो कभी,
चस्पा दिल में कोई किस्सा करना हो कभी,
तो लिखता हूँ।
मसरूर चेहरा कोई न जाए चित से कभी,
यतीम ख्याल कोई लगा लूँ दिल से कभी,
अरमाँ जगाए कोई नई बात फिर से कभी,
तो लिखता हूँ।
अपने से कहां कुछ लिखता हूँ,
बस इन बातों का ही तक़ाज़ा है
गाहे-ब-गाहे लिखना मेरा।
जाने क्या मिलता है?
लिख कर शायद,
समझता हूँ, समझाता हूँ खुद को कभी।