बात सन् 2015 की है, फरवरी के मध्य से बसंत ऋतु शुरू हो चुकी थी, मौसम खुशमिजाज़ हो चुका था। हम जम्मू कश्मीर के राजौरी ज़िले में स्थित बीएसएफ कैंपस सुंदरबनी में रहते थे। सुंदरबनी पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी एक घाटी है। पिताजी की तैनाती यहाँ पर दो साल पहले ही हुई थी। अब तक हम जहाँ भी रहे थे, वहाँ के मुकाबले यह अत्यधिक मनमोहक जगह थी। यहाँ भारतीय सेना और सीआरपीएफ के भी कैंपस हैं। हमारा कैंपस सेक्टर हेडक्वार्टर था तो अन्य बटालियन हेडक्वार्टर के तुलना में यहाँ पर ज़्यादा फैमिली क्वार्टर थे। हमारा क्वार्टर घाटी के ऊंचे स्थान पर था तो अद्भुत दृश्य देखने को भी मिलता था। यहाँ से सुंदरबनी का बाजार, कुंड मंदिर, आर्मी कैंपस आदि देखा जा सकता था। यहाँ के निवासी मुख्यतः डोगरी भाषा बोलने वाले हिंदू थे। संसाधनों से दूर होने के बावजूद यहाँ के लोगों में शिक्षा का स्तर काफी ऊँचा था। मैं यहीं कैंपस के अंदर ही केंद्रीय विद्यालय में पढ़ता था जहाँ सीआरपीएफ, आर्मी, बीएसएफ और स्थानीय निवासियों के बच्चे आकर पढ़ते थे। घर के बगल ही एक सीढ़ी नुमा ग्राउंड था जहाँ पर कैंपस के सभी बच्चे आकर खेला करते थे। वैसे यह खेलने का स्थान नहीं था लेकिन बच्चों ने खुद ही घास काटकर और जमीन खोदकर इसे खेलने के उपयुक्त बना दिया था। ऐसे ही मेरी दिनचर्या कट रही थी तभी खबर मिली की आज दोपहर की ट्रेन से गाँव से मेरे मामा के बेटे, संदीप भैया, जम्मू घूमने के लिए आयेंगे। हम लोगों ने तय किया कि हम वैष्णो देवी घूमने जायेंगे। सुंदरबनी से जम्मू तक रोज सुबह बीएसएफ की एक बस जाती थी। अगली सुबह नाश्ता करके मैं और संदीप भैया उस बस में सवार हो गए। करीब दस मिनट बाद बस बीएसएफ कैंपस के गेट के रजिस्टर में एंट्री कराकर चल पड़ी। सुंदरबनी से जम्मू तक का रास्ता इतना घुमावदार है कि अगर आपको बस में सफर करने की आदत नहीं है तो आप उल्टियाँ करते-करते बेहाल हो जायेंगे। मेरा भी हाल कुछ ऐसा ही था, मैं खिड़की की तरफ बैठा हुआ था और कंडक्टर को ही देख रहा था, जिसके चेहरे को देख कर ही लग रहा था कि मानों मन ही मन मुझे खूब कोस रहा हो क्योंकि बाद में बस की सफाई उसे ही करनी थी। दूसरी तरफ संदीप भैया पानी की बोतल लिए मेरा चेहरा साफ करा रहे थे। दो घंटे के सफर के बाद हम लोग जम्मू बस स्टैंड पहुँचे गए जहाँ से हमें दूसरी बस में बैठकर कटरा की ओर रवाना होना था।
जम्मू बस स्टैंड पहुँचे तो देखा कि कटरा की बस पहले से वहाँ खड़ी हुई थी। हम दोनों चढ़े ही थे कि बस चलने लगी, ऐसा लगा मानो बस हमारे लिए ही रुकी हुई हो। ख़ैर हमने पीछे की सीट पकड़ी और कटरा की ओर चल पड़े। जम्मू से कटरा की दूरी करीब 44 किलोमीटर है। वैष्णो देवी जाने के लिए श्रद्धालुओं को पहले कटरा पहुँचना पड़ता है, कटरा तक सीधे ट्रेन से पहुँचा जा सकता है या फिर जम्मू रेलवे स्टेशन से बस के जरिए भी पहुँचा जा सकता है। कंडक्टर ने हमें कटरा बस स्टैंड पर उतार दिया और लौटने के लिए सवारी तलाशने लगा। कटरा बस स्टैंड पहुँचकर संदीप भैया ने रजिस्ट्रेशन काउंटर से यात्रा के लिए पर्ची कटवाई क्योंकि यात्रा के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना आवश्यक होता है। स्टैंड पर उतरकर हम बिना देरी किए हुए आगे की यात्रा तय करने के लिए पैदल ही चल दिए। हमारा अगला पड़ाव बाणगंगा था। कटरा से भवन तक की दूरी अधिकतर श्रद्धालु पैदल तय करते हैं लेकिन इसके अलावा हेलिकॉप्टर, खच्चर, बैटरी रिक्शा और पालकी से भी चढ़ाई पूरी की जा सकती है।
बाणगंगा से ही पदयात्रा आधिकारिक रूप से शुरू होती है। यहीं पर श्रद्धालुओं की केंद्रीय सुरक्षा बलों द्वारा जांच की जाती है। माना जाता है कि जब माता वैष्णो देवी हनुमान जी के साथ त्रिकूट पर्वत की तरफ जा रही थीं, तब उनकी प्यास बुझाने के लिए उन्होंने धरती पर बाण चलाकर गंगा की उत्पत्ति की थी, तभी से इस नदी का नाम बाणगंगा पड़ गया। यहाँ पर माता वैष्णो देवी ने अपने केश भी धोये थे, तब से इसे बालगंगा के नाम से भी जाना जाता है। बाणगंगा में लंगर भी लगता है जहाँ श्रद्धालु अपनी पेट-पूजा करते हैं। बाणगंगा पहुंचकर हम दोनों भी लंगर चखने चले गए।
लंगर चखकर हम बाणगंगा से अर्द्धकुंवारी के लिए रवाना हुए। अर्द्धकुंवारी बाणगंगा और भवन की मध्य बिंदु है। यहाँ मार्ग के दोनों तरफ विभिन्न प्रकार की दुकानें मिलेंगी और सामग्रियों के मूल्य ऊँचाई के साथ-साथ बढ़ते जाते हैं। सूखे हुए सेब तो हर दुकान में मिल जाएंगे। हमारे आगे-पीछे कई श्रद्धालु माता के नाम की लाल पट्टी माथे पर बांधकर और लाल चुनरी ओढ़ कर माता का नाम लेकर समूह में जयकारा करते हुए चल रहे थे। हम भी स्वतः ही उनमें शामिल हो गए और अपनी पूरी ताकत से जयकारा लगाते हुए चढ़ाई करने लगे। तक़रीबन दो-ढाई घंटे की चढ़ान के बाद हम चरण पादुका पर पहुंचे। यहीं पर माता वैष्णो देवी के चरणों की छाप है। मैंने और संदीप भैया ने भीड़ के कारण माता के चरणों का क्षणिक दर्शन किया और आगे बढ़ चले। मार्ग में शीतल जल पीने की टोंटी और कचरा फेंकने की बाल्टी कुछ-कुछ दूरी पर उपलब्ध थी। साफ-सुथरे शौचालय भी समान दूरी पर दिख रहे थे। यात्रा को सुगम बनाने के लिए मार्ग को नीले टिन की छत से ढक दिया गया था ताकि बारिश और धूप से बचा जा सके, साथ ही लोगों के विश्राम करने के लिए जगह-जगह पर लोहे और सीमेंट की कुर्सियां भी बनी हुई थी। मार्ग में एक अलग ही क़िस्म का तिलिस्म मौज़ूद था, जिसके चलते थकान बिल्कुल महसूस ही नहीं हो रही थी। अब तक हम 5 किलोमीटर का सफर तय कर चुके थे, अर्द्धकुंवारी की सफेद इमारत दिखने लगी थी। उसे देखकर हमारे कदमों की रफ़्तार में भी खुद-ब-खुद इज़ाफ़ा हो गया था। 6 घंटे की चढ़ाई के बाद हम अर्द्धकुंवारी पहुंचे।
अर्द्धकुंवारी की सारी इमारतें सफेद संगमरमर की बनी हुई हैं। यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो चुकी थी। अर्द्धकुंवारी में सभी श्रद्धालु विश्राम करते हैं, यहीं से श्रद्धालुओं का भवन जाने के लिए रजिस्ट्रेशन होता है। वैष्णो देवी मंदिर की देख-रेख माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड करती है। श्राइन बोर्ड यहाँ से भवन की ओर टुकड़ियों में श्रद्धालुओं को भेजती है ताकि वहाँ भीड़ इकट्ठी ना हो। हम अपना रजिस्ट्रेशन कराकर रात को यहीं यात्री विश्राम गृह में रुकने वाले थे। यहाँ श्राइन बोर्ड का भोजनालय मौज़ूद था जहाँ हमने भोजन किया। इस पूरी यात्रा के दौरान खास बात यह रही कि यहाँ पर सभी भोजनालयों में राजमा-चावल जरूर उपलब्ध था, जो यहाँ के स्थानीय लोगों का पसंदीदा भोजन भी है। मैं और संदीप भैया खाना खाकर अर्द्धकुंवारी का चक्कर लगाने निकल पड़े। अर्द्धकुंवारी के मुख्यालय से खोए हुए और बिछड़े हुए लोगों की घोषणा लगातार हो रही थी कि फलाने व्यक्ति मुख्यालय आकर अपने साथी या अभिभावक से मिल लें। यहाँ से रात में कटरा शहर का पूरा नजारा देखा जा सकता था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अर्द्धकुंवारी एक मेज के ऊपर स्थित है और इसके किनारे से आप सीधे पूरे कटरा शहर को देख रहे हैं। कुछ देर घूमने के बाद हम दोनों विश्राम गृह में लौट आए और थकान के मारे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।
सुबह संदीप भैया ने मुझे उठाया और बताया कि हमें उठने में देर हो गयी है। हमनें फटाफट से स्नान किया और तैयार होकर अर्द्धकुंवारी में ही गर्भजून गुफा के दर्शन करने चले दिए। उम्मीद के मुताबिक यहाँ पर दर्शन करने के लिए लोगों की बहुत ही लंबी पंक्ति लगी हुई थी। समय का अभाव था तो हमने निर्णय लिया कि हम लोग गर्भजून को छोड़ आगे भवन की ओर बढ़ते हैं। अर्द्धकुंवारी से भवन तक के सफर के लिए हमने सड़क के साथ-साथ अनेक सीढ़ियों को भी तय किया और सीढ़ियां ऐसी वैसी नहीं, 300-1000 कदम की सीढ़ियां थीं जैसे सड़कें डॉलर का 'एस' थी और सीढ़ीयाँ उसकी सीधी डण्डी। पूरे रास्ते में जगह-जगह पर टेलीविज़न स्क्रीन और स्पीकर लगे हुए थे। टीवी स्क्रीन में तीनों पिंडों का लाइव प्रसारण हो रहा था और स्पीकर में बार-बार घोषणा हो रही थी कि तीनों पिंडों के जल्द ही दर्शन करके आप तुरंत आगे बढ़ जाए। मैं और संदीप भैया जल्दी पहुंचने के लिए तेज-तेज सीढ़ियां चढ़ने लगे। हर एक सीढ़ी चढ़ने पर हमारी सांस फूल रही थी तो हमने तय किया कि थोड़ी-थोड़ी सीढ़ियां चढ़ने के बाद कुछ देर आराम करेंगे फिर चलेंगे। फलस्वरूप हम 5 घंटे की चढ़ाई के बाद भवन पहुंच गए।
भवन भी अर्द्धकुंवारी जैसा ही सफेद संगमरमर का बना हुआ था, परंतु अर्द्धकुंवारी के तुलना में विशाल था। सफर में थक जाने के कारण हम लोग भवन में श्राइन बोर्ड के ही विश्राम गृह में जाकर ठहरे। स्नान करके हमने यहाँ के भोजनालय में भोजन किया। ठंडे पानी से नहाने क बाद गरमा-गरम खाने का अनुभव काफी आनंददायक था। फिर हम दर्शन के लिए चल दिए। वहाँ पहुँचकर हम भी कतार में लग गए और कतार की ही रफ़्तार को अपना लिया। श्रद्धालुओं को इलेक्ट्रॉनिक या चमड़े से बने कोई भी सामग्री को अंदर ले जाने की अनुमति नहीं थी। तो हमने भवन में ही बने लॉकर रूम में अपना सारा सामान जमा कर दिया। सुबह की आरती हो चुकी थी क्योंकि हम कुछ देर से पहुँचे थे, तो हमें पुरानी गुफा से जाने का मौका नहीं मिला, फिर हमें नई बनी हुई गुफा से जाना पड़ा। अगर हम पुरानी गुफा से होकर जाते तो हमें बाबा भैरोंनाथ के सिर कटे धड़ का दर्शन मिलता। ख़ैर धीरे-धीरे कतार आगे बढ़ती गई और हमारा दर्शन करने का मौका आ गया। हमने तीनों पिंडों के दर्शन किए। उन तीनों पिंडों के कोने से पानी की एक बहुत तेज धारा बह रही थी जैसे एक ग्लेशियर से पानी आ रहा हो। यह तीन पिंड माता सरस्वती, माता लक्ष्मी और माता पार्वती के थे। इन तीनों के योग से माता वैष्णो देवी बनती हैं। मुख्य पुजारी ने टीका लगाने क लिए हाथ बढ़ाया, तो हमने भी अपना एक हाथ सिर पर रखकर अपना माथा उनकी ओर कर दिया। उन्होंने बारी-बारी से टीका लगाकर और प्रसाद देकर हमे आगे बढ़ने का इशारा किया। हम आगे बढ़कर गुफा से बाहर आ गए। अब हमारा अगला पड़ाव बाबा भैरोंनाथ थे।
कहा जाता है कि वैष्णो देवी की यात्रा तब तक सफल नहीं होती जब तक आप बाबा भैरोंनाथ के दर्शन ना करें। तो हम लोग भी बाबा भैरोंनाथ के दर्शन के लिए निकल पड़े। हम सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते जल्दी ही बाबा भैरोंनाथ के धाम पहुंच गए और बिना किसी परेशानी के दर्शन भी हो गए। दर्शन के बाद हम बाबा भैरोंनाथ के धाम पर ही कुछ देर विश्राम करने के लिए रुक गए और चारों तरफ नज़ारा देखने लगे। सबसे सुंदर यह बात थी कि हम वहाँ से त्रिकुटा पर्वत की बर्फ से ढकी चोटियों को देख पा रहे थे।
अब हमारे लौटने का समय था। भैया और मैं अब नीचे कटरा की ओर चल दिए। उतरते वक्त हमें ज्यादा दिक्कत नहीं हुई, हमने तीन घंटे के भीतर ही बाबा भैरोंनाथ से अर्द्धकुंवारी की दूरी तय कर ली। अर्द्धकुंवारी पर हमनें वापस विश्राम किया, फिर भोजनालय में भोजन करके यात्रा वापस शुरू की। तक़रीबन चार घंटे में हम अर्द्धकुंवारी से बाणगंगा पहुँच गए। बाणगंगा से कटरा जाकर हमने अपना सारा सामान लिया और कटरा बस स्टैंड चले दिए। कटरा बस स्टैंड से हमने जम्मू के लिए बस पकड़ी और दो घंटे के अंदर हम जम्मू पहुँच गए। यहाँ से हम बीएसएफ फ्रंटियर हेडक्वार्टर के लिए एक रिक्शा से पहुँचे। वहाँ पर हमारी बीएसएफ की बस खड़ी थी, उसमें हम सवार हो गए। रास्ते की गंभीरता देखते हुए और पिछले अनुभवों से प्रेरणा लेते हुए मैं खिड़की वाली सीट पर बैठ गया और संदीप भैया वाटर कूलर से दो बोतल पानी भी भर ले आए। धीरे-धीरे करके रेलवे स्टेशन एवं अन्य जगहों से लोग आ रहे थे जो सुंदरबनी बीएसएफ कैंपस जाने वाले थे। लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद हम वापस सुंदरबनी रवाना हो गए।
मेरे कम उम्र और छोटे कदमों की वजह से यह यात्रा लंबी तो खिंच गई लेकिन हमें कोई अफसोस नहीं था। मन में उत्साह था कि हमने यह रोमांचक सफर पूरा किया और हमें माता वैष्णो देवी के पिंडों को तस्वीर की जगह उनके धाम पर साक्षात दर्शन का अवसर मिला। मैं बस की खिड़की के ऊपर सर टिका कर बस के साइलेंसर के धुए को निहारता रहा और गुजरती सड़क को देखते हुए अपनी यात्रा की कल्पना करता रहा और ना जाने कब मुझे नींद आ गई। और नींद खुली तो 'वेलकम टू सुंदरबनी' का पत्थरों और फूलों से सजाया हुआ लैंडमार्क दिखा और मन उत्साह से उछल पड़ा।