1 सितम्बर 1965,
हरिद्वार,
उत्तर प्रदेश (आज का उत्तराखंड)
संध्या हो चली थी। हल्की बारिश के बूंदे छाती हुई लाली को चमक दे रहे थे। उसी शहर में एक घर मौन धारण किए लालटेन की रोशनी में बैठा था। मां चारपाई पर बैठे सिसकियों में अश्रु धार बहाए जा रहीं थी। बाबूजी भी चुपचाप छोटे बेटे की शहादत का मातम मना रहे थे। तार से ख़बर आई थी की छम्ब जोकि अखनूर से सटा इलाका था , पर पाकिस्तान ने हमला किया। सैकडों की जानें गईं। हमले का जवाब देने का भी मौका नहीं दिया गया। रातों रात लाशें बिछ गयीं। उन लाशों में से एक लाश सुभाष की भी थी। नाम तो यूँ बाबूजी ने शशि रखा था, पर सुभाष चंद्र बोस से अत्यधिक प्रेरित हो, 10 वीं की परीक्षा में सुभाष लिख आया। शायद यही प्रेरणा और देश प्रेम उसे सैन्य बल की तरफ खींच ले गई। घर पर भी किसी ने ज्यादा विरोध नहीं किया। बाबूजी की उम्र हो चली थी। अब रिक्शा खीच कर घर पालना दुश्वर हो चला था। सोचा होगा घर में कुछ पैसे आयेंगे। कुछ तो हालत संभलेगी। बड़े बेटे को तो वो नकारा ही मानते थे।
बड़ा बेटा सुनील, था भी यूं तो अलग। खादी कुर्ता पायजामा पहने, हाथ में अक्सर कलम कागज लिए कहीं गहरी सोच में व्याप्त। बाह्य दुनिया से अनजान अपनी ही धुन में रहने वाला। साथ में हमेशा एक सालों पुरानी डायरी लिए घूमता था। किसी को हाथ भी न लगाने दे, ऐसी डायरी। कहता था लेखक बनेगा। बाबूजी लाख कहते, बेटा ये बड़े सपने हम नही देख सकते, हम तो बस अपना परिवार पाल लें वही बहुत है। पर सुनील तो जैसे मानो सबके सामने होकर, सारी बातें सुनकर भी, मौन एवम् सबसे पृथक हो । नतीजन परिवार का दायित्व और साथ ही साथ सबकी प्रशंसा एवम् सराहना मिली शशि यानी सुभाष को। सुभाष ने ये दायित्व निभाया भी बखूबी, फिर चाहे घर में पैसे लाना हो या माँ बाबूजी की देखभाल। बड़े भाई से भी अत्यधिक प्रेम करता था। शायद इसीलिए सुनील ने छोटे भाई के अलावा और किसी को भी अपनी डायरी में बरसों से संकलित रचनायें नहीं दिखाईं।
खैर, फ़िलहाल जहाँ माँ बाबूजी हताश बैठे पुत्र क्षति की कटु वास्तविकता से दो दो हाँथ कर रहे थे, वहीं बड़े भाई लालटेन से थोड़ी दूर घर की दहलीज़ पर बैठे, हाथ में कलम और वही पुरानी डायरी लिए शून्य भाव से ढलते सूर्य को देख रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो उन्हें आसमान के पार भी दिखाई पड़ता हो। मनो आसमान के पार कोई है जिसकी आँखों में आँखें डालकर मांग रहे हों उत्तर। उधर माँ की वेदना आखिर क्रोध के रूप में फूट ही पड़ी। एकाएक सुनील पे बरस पड़ीं," अरे! अब भी क्या बैठा डायरी काली किया जाता है! दिल नही कांपता क्या तेरा! किस पत्थर का बना है तू!"। बाबूजी ने मां को समझाया,"इसपर चिल्लाने से क्या होगा। जो होना था सो तो हो गया।" पर सुनील भली भांति समझ रहा था की ये बचाव सिर्फ बाह्य है। अंदर ही अंदर मां बाबूजी दोनो को मेरी पृथकता खाए जा रही है। बात भी सही थी। अब घर में ना कोई पैसे भेजने वाला था, ना ही घर गृहस्थी की देखभाल करने वाला। सुभाष ही इस घर को जोड़ के रखने वाला धागा था, जिसके अचानक टूटने की चटाक अभी भी घर के सूनेपन में गूंजी जा रही थी। बाबूजी भी अब चिंता में पड़ गए। रिक्शा चलाना तो वो कबका छोड़ चुके थे। फेफड़े अब ज़रा भी साथ न देते थे। बात करते करते अचानक छाती पकड़ के बैठ जाते और घंटों आराम न होता। सुनील भी घर में नाकारा ही बैठा था। सुभाष जो भी थोड़े बहुत पैसे भेजता उसी से रोज़ी रोटी और बाबूजी की दवा चल रही थी। चिंता एक काली दीवार की भांति चारों ओर से घेर लेती है, जिसमें से निकलने की फिर कोई गली नहीं सूझती। सूझता है तो बस दूसरों को कोसना या यातना के ठोस पत्थर को क्रोध के पिघले लावा में बदल बस किसी पे उड़ेल देना। ऐसे ही कुछ चिंता के अंधकार में लिप्त, बाबूजी बिना सोचे-समझे बड़बड़ा उठे, “इससे तो अच्छा होता सुभाष की जगह सुनील मरा होता! जाते जाते ही सही किसी काम तो आ जाता!!" और तुरंत उनका दिल धक सा बैठ गया। अपनी बात पे पछताने लगे। मनाने लगे की काश बात बारिश की आवाज जो अब तेज हो चली थी, में दब गई हो। पर सुनील ने सब सुना, साफ स्पष्ट लफ्जों में।
5 सितम्बर 1965,
हरी की पौड़ी घाट, हरिद्वार
पिछली रात ही सुभाष का शव घर पहुंचा था। साथ में उसकी तमगे सजी वर्दी थी, जिसे सुभाष द्वारा जीती हुई बाकी ट्रॉफियों के बगल में टांग दिया गया। साथ में एक चिट्ठी भी थी, मेजर जनरल निरंजन प्रसाद की जिनकी बटालियन में सुभाष था। सांत्वना पत्र समझ कर उसे दरकिनार कर सुभाष से जाके मां बाबूजी लिपट गए और बिलख बिलख कर रोने लगे थे। आज अंतिम संस्कार हो रहा था। सुनील में आज से न जाए कैसा परिवर्तन सा आ गया था। पूरे अंतिम संस्कार की व्यवस्था उसी ने की। परंतु जब चिता धू धू करके जल रही थी, सुनील कहीं नजर नहीं आया। बाबूजी चुप चाप हवा से झड़प करती लपटों को ताक रहे ही थे कि उन्हें चिता के बीच खोंसे हुए पन्ने, आग में काले होते और फिर आग लगते हुए दिखे। ध्यान से देखा तो जान पड़ा ये तो वो ही सुनील की डायरी है। बाबूजी चिंतित हो उठे। तुरंत घर को वापस लौटे और देखा मां सर पे हाथ रखे बैठी रो रही है। मेज पर वो चिट्ठी खुली पड़ी है। पड़ोसी के लड़के से पढ़वाया तो पता लगा मेजर जनरल जवाबी हमले की बात कर रहे थे और सुनील को सुभाष की जगह लेने को निमंत्रित किया था। बाबूजी का दिल धक सा बैठ गया और नजरें ट्रॉफी वाली दीवार पे गईं। तमगे बाकी ट्रॉफियों के साथ चमक रहे थे। पर जिस वर्दी में सज के उसकी शोभा बढ़ाते, वो वर्दी वहां नहीं थी।
~ प्रखर प्रताप मल्ल