मई ९, २0१९
पटना, बिहार।
आज देश के छद्म समाजवादियों की सुनें तो वो आपको सिर्फ लोहिया और जेपी की बात हीं कहेंगे। कुछ थोड़े परिपक्व हुए तो सामाजवादी नाम की पार्टीयों के शरण में चले गए। लेकिन मैं कहता हूँ ये छुटभैयों का समाजवाद है। प्राइवेट चार्टर प्लेन में बैठकर समाजवाद की बात करने से कोई समाजवादी नहीं होता। और समाजवाद ये भी नहीं है कि आप किसी अमीर आदमी का टोंटी और कमोड उखाड़ कर उसे भी गरीबों की तरह रेलवे की पटरियों पर शौच करने को बाध्य कर दें। वक्त का आलम अब ये है कि लैलो जी के समाजवादी दर्शन पर बात करना बहुत ज़रूरी हो गया है। लैलो जी की बात करें तो वे समाजवादी चिनौटी के चूना हैं। केतनो रगड़ लीजिये लेकिन इनके बिना समाजवाद का खैनी नहीं लगेगा।
पहली कड़ी है तो हमलोग वस्तुतः लैलो जी के समाजवाद के उदय की बात करेंगे। लैलो जी का समाजवाद आखिर कहाँ से शुरू होता है? उत्तर मिलता है- पान दुकान से। जब चड्डीधारी लोग सुबह सुबह लाठी ठोंक के भारत माता की जय कर रहा होता था हम भी ठोंक रहे होते थे। खैनी। पान दुकान के किनारे खड़े हो कर। वे ‘वंदे मातरम’ कह कर खुद को राष्ट्रवादी प्रमाणित कर लेते हैं और हम “ला हो मर्दे, खैनी ला” कह कर खुद को समाजवादी। अंतर के मूल में यही है बस।
आज से चालीस साल पीछे चलिए। तब लैलो जी विश्वविद्यालय स्टूडेंट यूनियन के जनरल सेक्रेटरी हुआ करते थे। किसी शाम अंटा घाट पर अपने लौंडों को माल फूँकवाने के बाद लैलो जी मूड सेट करने के लिए पास के एक गुमटी पर ठहरे। एक छोटी गोल्डफ्लेक खरीदी और सुलगा लिए। दो कश हीं लगा होगा कि पीछे से सुट्टा मारने को लालायित एक गरीब गुरबा नवयुवक लैलो जी के पास आया। साहेब हिचके नहीं। दो कश और लिए और उस छोटी गोल्डफ्लेक का एक बड़ा हिस्सा उस नौजवान को दे दिया। लैलो जी तब तक पूरा सेट हो कर चिंतन के मानसिक प्रक्रिया में शामिल हो गए थे। उन्हें तुरंत सामाजिक समरसता का भाव हुआ और लैलो जी ने इसे समाज के हर फ़ील्ड में इम्पलीमेंट करने का निश्चय किया। समावेशी विकास के इस विचारधारा का केंद्र बना ‘पान गुमटी’।
पान दुकान से समाज की दूरी आज निश्चित रूप से बढ़ी है। अब तो बस कुछ हम जैसे अतिउत्साही नौजवान गांजारस चखने के प्रयास में इंटरैक्ट कर लेते हैं। वरना एक वक्त था। लैलो जी ने सभी पान दुकानों को MOU सेंटर रूप में विकसित किया था। स्थानीय गुर्गे का गुंडा हो, पुलिस हो या किसी सरकारी दफ़्तर का कर्मचारी। इनके साथ लैलो जी के प्रशासन का इंडिविजुअल बेसिस पर MOU था। चाहे दिनदहाड़े अमीर व्यापारी का अपहरण हो या रात के अंधेरे में किसी वित्तरहित शिक्षक से छीना झपटी, सभी योजनाएं परस्पर सहयोग से यहाँ बैठक के बाद हीं संचालित होती थी। समय में अंतर इसलिए क्योंकि पहला कार्य दबंगई का है। इसे सीजंड लौंडे अंजाम देते थे। दूसरा कार्य चोट्टई का है। इसमें इन्टर्नस लगाए जाते थे जिससे उनके सुबह पान थूकने का खर्चा निकल जाता था। हालांकि सम्मान की दृष्टि से दोनों कार्य बराबर के थे। लैलो जी ये सुनिश्चित करते थे कि समाज का हर तबका समान रूप से खौफ़ज़दा रहे। लैलो जी के समाजवादी राज में पुलिस आपका ड्राइविंग लाइसेंस और पॉल्युशन चेक करने का काम नहीं करती थी। उनके पास दूसरे महत्वपूर्ण काम हुआ करते थे। साहेब आज पुलिस के कार्यप्रणाली का ये ह्रास देखते होंगे तो उन्हें बहुत दुख होता होगा।
आजकल पूंजीवादी ताकतें खाने की दुकानों के नाम पर जनता को लंबी लंबी लाइनों में खड़ा कर रही हैं, पेटीएम भीम तेज़ इत्यादि से पैसे ले रही है। जबकि ज़मीनी हकीकत है कि आज भी बिहार के लोकल लौंडन लोगन को नहीं आता ई सब चुतियापा। लैलो जी ये सब बात समझते थे, वे अतिविकास के खिलाफ थे और इसे अमरीका की चाल समझते थे। उनके दौर में लिट्टी चोखा का धंधा अपने चरम पर था, लाइन वाइन का कोई झंझट नहीं बस जाओ और नकद उधार जो भी हो उसपे लिट्टी खाओ। लैलो जी कभी भी पैसों के इलेक्ट्रॉनिक ट्रेल छोड़ने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि चाहे दहेज हो चाहे फिरौती सब नकद में होना चाहिए। जमीनी नेता थे, जानते थे कि साला जिस बिहार में…... ख़ैर छोड़िए बिहार की बात कभी और करेंगे। किसी और एपिसोड में।
अनुराग कश्यप जमीन से जुड़े निर्देशक हैं। वासेपुर का वो सीन हीं देख लीजिए जहाँ डेफिनिट बस ऐसे हीं सेक्सी लग रहा ‘स्नेक कोबरा’ उठा लेता है और कहाँ पहुँचता है- जी, पान गुमटी पर। यह चारा घोटाले का दौर था। लैलो जी इंसान और पशु में विशेष फर्क नहीं करते थे और दूसरों को भी प्रेरित करते थे। शायद इसी से इंस्पायर होकर डेफिनिट को वो सर्प भी उतना हीं सेक्सी लगा जितना ‘ई का कर रहे हो डेफिनिट, हम तुम्हारे दोस्त हैं’ वाली उसकी महिला मित्र। सच्चा समाजवाद यही है मित्रों। जहाँ समाज में सिर्फ गरीब अमीर के स्तर पर हीं नही बल्कि पशु-इंसान, दोस्त- गर्लफ्रैंड, पचास पैसे का ब्लेड और एक सौ पचास रुपये के कट्टे तक में कहीं कोई भेद ना रहे। और लैलो जी इस समाजवाद के शिखर पुरुष हैं।
इस सीन का संवाद देख लीजिए।
-“एगो पान बनाइए हो चचा, बढ़िया सा। और सही से बनाइयेगा नहीं तो लूँगीए में छोड़ देंगे, देख रहे हैं (साँप की तरफ़ इशारा करते हुए)”
-“देख रहे हैं भैयाजी”
तब तक उस गुमटी तक डेफिनिट के लिए फैजल खान सम्मन लेटर भिजवा चुके थे। उनको मालूम था कि मोहल्ले के जिन लफूए और आवारा लौंडों को घर, समाज और परिवार दुत्कार देता है उनका आखिरी आसरा यही होता है। मोहल्ले की नवयुवतियों की सौंदर्य- विश्लेषण में कितनों ने अपनी जवानियाँ यहाँ गुज़ार दी।
गैंग्स ऑफ वासेपुर का क्लाइमेक्स तो आपको याद हीं होगा। ट्विस्ट अनुराग कश्यप नहीं बल्कि लैलो जी स्वयं चाहते थे। उन्होंने हीं डेफिनिट को पटना के बेउर जेल से रिहा करवाया ताकि बदले का भी एक बदला हो और वासेपुर का अध्याय खत्म ना हो। समाज में निरंतरता बनी रहे। वासेपुर लैलो जी का एक डार्क पास्ट है। इस पर किसी और कड़ी में विस्तार से चर्चा करेंगे। फिलहाल के लिए, समय का फेर देखिए। लैलो जी आज रांची जेल में हैं। आज जिस तरह समाज अतिविकास की राह पर चल पड़ा है, ये समाजवाद के विकास में रोड़ा है। अतिविकास खतरा है। समाजवाद पर अतिक्रमण है। अब तो बस किसी लैलो के लाल की तलाश है जो उन्हें बिरसा मुंडा जेल से निकाल कर लाए। लैलो जी पुनः भारतीय राजनीति में स्थापित हों और जो सुनहरे दिन बिहार ने नब्बे के दशक में जिये हैं वो आप हिंदुस्तान को फिर से लौटाएँ।
जय लैलो, जय समाजवाद!
- बाँके और ज़ाहिद