सरदार भगत सिंह के जीवन के अलग अलग पहलुओं को उन्हीं के दस्तावेजों और पत्रों के जरिये बताती यह छोटी सी किताब समाज के लगभग हर ज़रूरी मुद्दे पर भगत सिंह के विचारों पर प्रकाश डालती है। वो मुद्दा फिर चाहे किसी भी देश की भाषा के महत्व का हो, स्वतन्त्रता आंदोलन में बल का प्रयोग हो, प्रेम हो अथवा आत्महत्या हो; भगत सिंह ने इन सभी पर अपने विचारों को बड़े ही साफ़ और सरल ढंग से जिन दस्तावेजों में व्यक्त किया था, उन्हें लेखिका 'वीरेंद्र सिंधु' ने इस किताब में लिख रखा है।
23 वर्ष की उम्र में विचारों में इतनी स्पष्टता विरले ही देखने को मिलती है। भगत सिंह के इन लेखों में देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून साफ़ झलकता है। उनके विचारों में किसी नवयुवक सी उत्तेजना भी है और किसी बुजुर्ग सी विचारशीलता और संयम भी।
जिस प्रकार उन्होंने कांग्रेस और गाँधी जी के द्वारा समकालीन हिंसात्मक आंदोलन से जुड़े संगठनों पर की गयी टिप्पणियों का खंडन करते हुए उलटे ही कांग्रेस के तौर तरीकों पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया था, यह साफ़ दिखता है कि उनमें एक ऐसे विचारक और नेता के गुण थे जो देश को शायद ही कभी मिलेगा।
गाँधी जी के लेख 'दि कल्ट ऑफ़ दि बॉम्ब' के जवाब में लिखे अपने लेख 'बम का दर्शन' में हिंसा और अहिंसा को परिभाषित करते हुए उन्होंने बड़े ही स्पष्ट रूप से क्रांतिकारियों द्वारा बलप्रयोग को हिंसा कहना सिरे से गलत बताया है। उनका कहना था,
"हिंसा का अर्थ है अन्याय के लिए किया गया बलप्रयोग, परन्तु क्रांतिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है..........
एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी मांग करता है, अपनी उस मांग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है। उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें, परन्तु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते…..। "
इसी लेख में आगे चलके भगत सिंह ने बिंदुवार ढंग से गाँधी जी की हिंसात्मक आंदोलन के विरोध में दी गयी सभी दलीलों का खंडन किया है। पुस्तक में दिए गए सभी दस्तावेजों में भगत सिंह का अपने दर्शन पर आत्मविश्वास देखते ही बनता है।
पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को उन्होंने अंग्रेजों के चले जाने तक ही सीमित नहीं माना था। किताब में दिए उनके लेखों में भारत को स्वतन्त्रता के बाद किन सिद्धांतों पर खरा उतरना होगा तथा क्या लक्ष्य रखने होंगे, इन सभी बातों पर बड़ा ही विस्तृत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है।
पुस्तक को पढ़ते समय यह साफ़ पता चल जाता है कि भगत सिंह को पढ़ने में विशेष रूचि थी, खासकर रूसी साहित्य में। उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन को भारत में एक विचारशील और सैद्धांतिक आंदोलन की शक्ल दी थी। दस्तावेज़ बताते हैं कि उन्होंने जेल में रहते हुए भी कैदियों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए भरसक प्रयत्न किए थे।
इन पत्रों और दस्तावेजों में कहीं-कहीं उनके जेल में बिताए जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है। उनके अपने साथी क्रांतिकारियों से सम्बन्ध कैसे थे इसका भी ठीक-ठाक अंदाजा देने में यह पुस्तक सक्षम है। भगत सिंह की उनके माता-पिता के लिए भावुकता आत्मसात करने लायक है, लेकिन यह भावुकता उनके सिद्धांतों और देशप्रेम के आड़े कभी नहीं आयी। 'पिताजी के नाम प्रतिवाद पत्र' नामक पत्र में यह बात बख़ूबी दिखती है।
पत्रों को पढ़ते समय यदि कोई युवा पाठक उस समय में पहुँच जाए और खुद को भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन से जोड़कर देखने लग जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। इसे इस पुस्तक की खासियत कह लीजिए कि लेखिका ने अपने दृष्टिकोण को कहीं भी महत्व दिया ही नहीं है, वीरेंद्र सिंधु जी ने बड़ी ही समझदारी से ये काम पाठकों पर ही छोड़ दिया है।
भगत सिंह के जीवन के साथ आगे बढ़ते हुए उनकी शहादत से पहले तक के पत्रों को संकलित करते हुए, उन सभी जरुरी दस्तावेजों और लेखों को भी रखना नहीं भूला गया है, जिन्हें लेकर लोग हमेशा ही उत्सुक रहते हैं। भगत सिंह के द्वारा असेम्ब्ली हॉल में फेंके गए पर्चे पर क्या लिखा था, दरअसल वहां क्या हुआ था, उनका बटुकेश्वर दत्त के लिए पत्र, सुखदेव के नाम पत्र, भगत सिंह का पिताजी के नाम प्रतिवाद पत्र, बम का दर्शन, कौम के नाम सन्देश, इन सभी विषयों को पढ़ते ही किताब पढ़ने की ललक खुद-ब-खुद घर कर जाती है। अदालत में मुक़दमों के दौरान भगत सिंह को खुद से पहले देश की स्वतन्त्रता को रखते हुए पढ़ना पाठकों के लिए एक अप्रतिम अनुभव होगा। हमारी राय में स्वतन्त्रता आंदोलन को करीब से जानने के लिए यह जरूरी किताबों में से एक मानी जानी चाहिए।