परिचय -
परिणीता शरतचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1914 में रचित एक प्रेम कथा है। उनकी लेखन शैली के अनुरूप ही इसमें भी लोगों के संघर्ष, उनकी जीवन शैली एवं प्रेम के अनोखे रूप को मिश्रित कर दर्शाया गया है। यह हीर-रांझा, लैला-मजनू आदि की तरह ही एक अमर प्रेम कहानी है। बंगाली में लिखे होने के बाद भी इसका प्रभाव सभी तरह के भाषित लोगों पर पड़ा। यह कहानी इतनी पसंद की गई कि इसके ऊपर कई भाषाओं में चलचित्र बने हैं जिनमें प्रदीप सरकार द्वारा 2005 में निर्देशित ‘परिणीता’ भी शामिल है।
कथानक -
यह कहानी दो पात्र शेखर और ललिता के इर्द-गिर्द घूमती है। पूरी कहानी का केंद्रीय भाव पुरुष और नारी के मन में होने वाले बदलाव है। कहानी में गुरुचरण, जो कि ललिता के मामा हैं, अक्सर इसी चिंता में रहते हैं कि ललिता एवं उनकी बेटियों का विवाह किस तरह से किया जाए। इसके लिए उन्होंने कर्ज़ा भी ले रखा है। यहाँ एक गौर करने वाली बात है कि गुरुचरण ने कभी भी ललिता को अपनी सगी बेटियों से अलग नहीं समझा क्योंकि जितनी चिंता उन्हें अपनी बेटियों के विवाह की थी उतनी ही चिंता उन्हें ललिता की भी थी। गुरुचरण ने नबीन, जोकि शेखर के पिताजी है, से कर्ज़ ले रखा है। नबीन एक लालची प्रवृत्ति के इंसान हैं जो गुरुचरण की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर उसका घर हड़पना चाहते हैं। इसके अलावा वे शेखर के विवाह के लिए भी कोई रईस घर की लड़की ढूंढ़ते हैं जिससे की उन्हें दहेज में अच्छी रकम प्राप्त हो सके।
इस कहानी में एक और किरदार गिरीन्द्र भी है, जो की ललिता की सहेली चारु के मामा हैं। ललिता के साथ ताश का खेल खेलते-खेलते गिरीन्द्र मन ही मन में ललिता को चाहने लगता है। कहानी का मध्यम भाग शेखर, ललिता एवं गिरीन्द्र के मन में पनप रहे प्रेम को बताता है कि किस प्रकार लोग आकर्षण और प्रेम के चलते अपने हित के लिए कई कदम ऐसे उठाते हैं जिनसे वे अपने चाहने वाले की नज़र में ऊँचें उठ जाएँ। इन सबके अतिरिक्त हमें जलन एवं घृणा का भाव भी देखने को मिलता है।
कहानी में शेखर की माता भुवनेश्वरी भी कहानी में एक सहायक पात्र की भूमिका निभाती हैं जिनका आगे जाकर शेखर-ललिता की कहानी मोड़ने में बड़ा प्रभाव है।
आगे की कहानी का मुख्य केंद्र गुरुचरण एवं उनके उठाए हुए कदमों से मुख्य पात्रों एवं उनके परिवारजनों के जीवन में होने वाले बदलाव हैं। गुरुचरण एक साधारण आम-आदमी का प्रतीक है जो अपनी परेशानियों एवं समाज की कुरीतियों से हताश हो जाता है। आगे किस प्रकार गलतफहमियां दो प्रेमियों को किस हद तक दूर कर सकती हैं ये भी कहानी में बखूबी दिखाया गया है। इसमें मुख्य केंद्र शेखर के हाव-भाव पर होता है। शेखर के ज़रिए लेखक ने अधिकांश पुरुषों की घृणित होकर बदलती मानसिकता दर्शायी है। इसके अतिरिक्त किस तरह समय आने पर मनुष्य अपने मौलिक सिद्धांतों को अपनाता है इसका लेखक ने आकर्षक वर्णन किया है।
सारांश -
कहानी कई ऐसे दिलचस्प मोड़ लेती है जो पाठक को स्त्रियों की दशा के प्रति संवेदनशील बनाती है तथा उसे पात्रों से बाँध कर रखती है। कहानी में कई घटनाएँ ऐसी होती हैं जिनमें आम इंसानों और उनके परिवार के संघर्ष को दिखाया जाता है। तथा इस परिस्थिति में कैसे अन्य लोग अपना स्वार्थ पूरा करते हैं इसका भी काफी विस्तृत वर्णन है। इसमें पुरुष के भी पुरुषार्थ एवं संवेदनहीनता मानसिकता का चित्रण किया गया है।
निष्कर्ष -
यह कहानी बताती है कि समाज द्वारा स्थापित पूर्वधारणाओं को तोड़कर किस प्रकार प्रेम और घृणा मनुष्य को व्याकुल कर देते हैं। जहाँ एक ओर लोगों की दर्शायी गयी जीवनशैली आज के दौर में भी प्रासंगिक है वहीं दूसरी ओर कहानी में दिखायी गयी प्रेम की व्याख्या वर्तमान सामाजिक धारणाओं के विरुद्ध जाती हैं।
इसके बावजूद भी आपको कहानी से प्रेम हो जाएगा।