"ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना.......हाँ !"
कुछ दिन पहले चलते-चलते किसी को किशोर कुमार जी का यह लोकप्रिय गीत गाते सुना था। तब तो कानों ने इनको सुना परंतु मस्तिष्क ने इन्हें अनसुना कर दिया, परंतु आज शाम परिवार के साथ जब लूडो खेलने बैठा तो कहीं न कहीं यह बोल मुझे उन गोटियों से गूंजते हुए सुनाई दिए।
ऐसा लगा की मानो वो गोटियां मुझसे चिल्ला-चिल्ला कर कुछ कहना चाह रहीं हों, मुझे कुछ समझाना चाह रहीं हो। खैर, आदतानसुआर मैंने इन सन्देश वाहकों को भी नज़रअंदाज़ किया और खेल में पूरी तरह मशरूफ़ अपने पासे इस गलत फेहमी में फेंकता रहा कि जैसे उन गोटियों की तक़दीर मेरे हाथों द्वारा लिखी जा रही हो। 6 आने पर बड़ा खुश, और 1 आने पर थोड़े असंतोष के भाव से मैं आगे बढ़ता रहा। रास्ते में कभी-कभी कुछ गोटियां आ रहीं थीं, उन्हें काटता हुआ मैं आगे बढ़ता रहा। देखते ही देखते मेरी तीन गोटियां जीवन के उस चक्र को पार गयीं। थोड़ी बहुत नज़र इधर-उधर दौड़ाई तो देखा की बाकी सब की तो अभी एक ही गोटी ऐसा कर पाई है। मेरी तीनों वीर गोटियां अपनी-अपनी कब्रों में पड़ीं उन हारती हुई गोटियों पर हंस रही थीं, उन्हें उलहाने दे रही थीं, और अपने चौथे साथी का मनोबल बढ़ाने में लगी हुई थीं, कि बस वो आये और चारों मिलकर अब चैन की नींद सो जाएँ। मैं भी अपने अहंकार में मदहोश पूरे जोश और विश्वास के साथ पासा फेंकने लगा, ऐसा मान लिया कि अब तो जीत मेरी ही है।
इतने में लूडो के उस बोर्ड ने गाना गाया, "ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना.......हाँ !"
मैंने सोचा यह तो मूर्ख है, इसको जीवन के बारे में क्या पता, यह मेरे कौशल से अवगत नहीं शायद इसको दिख नहीं रहा कि मैं अंक पहले बोल रहा हूँ और पासा बाद में फेंक रहा हूँ।
मेरी यह बात शायद उस पासे और उन तमाम झूझती हुईं गोटियों ने सुन ली, और उनको यह बात नागवार गुज़री। अगले आधे घंटे में हुआ कुछ यूँ कि मेरी वो एक गोटी उन सभी प्रतिद्वंदियों से अकेली झूझती रही। मैदान कुछ ऐसा सज गया था कि वह तीनों वीरांगनाएं भी अपनी-अपनी कब्रों से निकल कर, एकटक उस संघर्ष को देख रहीं थीं। ऐसा लग रहा था मानो कुरुक्षेत्र का मैदान एक और युद्ध के लिए सज गया हो, और अभिमन्यु के लिए चक्रव्यूह एक बार फिर तैयार कर लिया गया हो। जैसे ही वह जूझता अभिमन्यु उठता कोई न कोई कौरव आकर उसको वापस गिरा देता। चक्रव्यूह के बाहर खड़े पांडव लाचार थे और अपने आप को कुछ समय पहले कृष्ण समझता मैं, अब बस बेबसी से उस पासे, उस गोटी, उस खेल को देख रहा था। कौरव जीतते जा रहे थे और अभिमन्यु एक बार फिर दम तोड़ता दिखाई दे रहा था।
इतने में उस गोटी से गूंजती हुईं आवाज़ आयी, - "नन्हीं सी चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है.......आखिर उसकी महनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। "
यह कहते ही अभिमन्यु एक बार फिर अपना सुदर्शन लेकर उठा, और ऐसा दहाड़ा कि कौरव सकते में आ गए। लड़ते-लड़ते इस बार वो कौरवों को मात देता, लड़ाई के अंतिम मार्ग पर पहुंचा, ऐसा लगा कि मानो चक्रव्यूह अब भेद दिया जाएगा, परन्तु उस अंतिम पड़ाव पर भी उसके धैर्य की परीक्षा ली गई। उस पड़ाव पर उसे कोई मार तो नहीं सकता था परन्तु ऐसा लगा कि मानो यक्ष एक बार फिर अपने प्रश्न लेकर एक और पुरु वंशज के सामने खड़े हो गए हों। यहाँ मेरे पासे पर 1 नहीं आ रहा था और दूसरी तरफ़ ऐसा लग रहा था कि मानो सारी गोटियां अपनी अपनी मंज़िलों तक पहुंच जाएंगी, और एक बार फिर अभिमन्यु पहले छल से तो इस बार किस्मत से हार जाएगा, परन्तु शायद वक़्त भी ठहरा हुआ यह महाभारत देख रहा था और इस बार वो उस झूझते हुए योद्धा के पक्ष में ही रहना चाहता था।
मैंने पासा एक बार और फेंका, वह थोड़ा लुढ़का, मानो मुझे सबक सिखा रहा हो परंतु अंत में उसने मुझे 1 अंक दे ही दिया। यक्ष के सवाल ख़त्म हुए, और अभिमन्यु भी अपनी मंज़िल को पा गया।
बाहर से देखने पर यह महाभारत बहुत नाटकीय एवं निर्जीव भले ही दिखाई दे, परन्तु उन गोटियों को यदि जीवंत करके देखूं तो उनके लिए यह उससे कम भी नहीं था अंतर बस यही था कि इस बार अभिमन्यु को व्यूह से बाहर निकलना भले ही नहीं आता था परन्तु इस बार वो ऐसा कर पाया, और फिर जीवन क्या है? महाभारत का वो चक्रव्यूह ही तो है, जिसमें हम सब अभिमन्यु हैं और हमारे अंदर की वो तमाम बुराइयां, वो तमाम नकारात्मकताएँ कौरव हैं, जो लगातार हमें हराने के प्रयास में रहती हैं।
फैसला हम पर है कि कौन सा गीत गुनगुनाना है।
"हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन.... हो हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन।"