परिचय
चित्रलेखा उपन्यास का परिचय भगवतीचरण द्वारा लिखित उपन्यास 'चित्रलेखा' पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है। यह उपन्यास मानव जीवन के अहम पहलुओं और भावनाओं को सामने लाते हुए बताता है कि कैसे मनुष्य परिस्थितियों में आकर अपने मन के धैर्य को खो देता है। यह उपन्यास अपने समय की रूढ़ीवादी सोच पर कड़ा प्रहार करती है और मानव संवेदनाओं का सुंदर चित्रण करती है।
कथानक
कहानी शुरू होती है महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्यों, श्वेतांक और विशालदेव से, जो अपने गुरुजी से पाप के बारे में जानना चाहते हैं। गुरुजी उन्हें अपने दो पुराने शिष्यों के पास भेजते हैं। श्वेतांक, जो क्षत्रिय है और संसार में रुचि रखता है, उसे बीजगुप्त के पास भेजा जाता है, जो एक भोगी है। विशालदेव, जो ब्राह्मण है और ध्यान तथा आराधना में रुचि रखता है, उसे कुमारगिरि के पास भेजा जाता है, जो एक योगी हैं और दावा करते हैं कि उन्होंने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है। इनके साथ रहते हुए श्वेतांक और विशालदेव नितांत भिन्न अनुभवों से गुजरते हैं।
उनके इस मार्ग में दोनों की मुलाकात एक नर्तकी चित्रलेखा से होती है, जिसकी सुंदरता की चर्चा पूरा पाटलिपुत्र करता है। चित्रलेखा भोग-विलास को अपनाते हुए, ईश्वर पर अटूट विश्वास नहीं रखती। वह सामंत बीजगुप्त से प्रेम करती है और उसके साथ पति-पत्नी के रिश्ते का भोग करती है। हालांकि समाज में उनके इस रिश्ते को मान्यता नहीं मिली है, लेकिन बीजगुप्त ने उसे अपनी पत्नी का दर्जा दिया है।
इसी दौरान चित्रलेखा की मुलाकात गुरु कुमारगिरी से होती है, जिनके व्यक्तित्व से वह काफी प्रभावित होती है। विपरीत व्यक्तित्व होने के बावजूद चित्रलेखा और कुमारगिरी के बीच एक असाधारण आकर्षण का जन्म होता है। विराग को लेकर कुमारगिरी और चित्रलेखा के बीच बेहद रोचक विवाद होता है, जो वास्तव में तर्कशील है और पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है। इस कहानी की दूसरी ओर बीजगुप्त की मुलाकात मृत्युंजय की बेटी यशोधरा से होती है। यशोधरा काफी सरल स्वभाव की होते हुए भी सुंदर स्त्री है। मृत्युंजय उसकी शादी बीजगुप्त से करवाना चाहते हैं, परंतु वह चित्रलेखा से अनंत प्रेम करता है। कहानी अंत में एक रोचक मोड़ लेती है, जहाँ हमें प्रेम और त्याग की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।
भाषा विवरण
“धर्म समाज द्वारा निर्मित है। धर्म के नीतिशास्त्र को जन्म नहीं दिया है, वरन् इसके विपरीत नीतिशास्त्र ने धर्म को जन्म दिया है। समाज को जीवित रखने के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों को ही नीतिशास्त्र कहते हैं।”
इस उपन्यास में काफी दार्शनिक तर्क हैं जो मनुष्य को अपने अस्तित्व, कर्म और धर्म के आचरण के लिए सोचने को मजबूर कर देते हैं। हर समय सही-गलत भावनाओं पर नियंत्रण के सवाल उठते हैं और समाज की नैतिकता पर सोचने के लिए विवश करते हैं।
“ईश्वर अनादि है, पर उस ईश्वर को, मैं दावे के साथ कहता हूँ, कोई नहीं जानता - वह कल्पना से परे है। वह सत्य है; पर इतना प्रकाशवान कि मनुष्य के नेत्र उसके आगे नहीं खुले रह सकते। उस सत्य को जानने का प्रयत्न करो, उस ईश्वर को पाने के लिए घोर तपस्या करो, पर सब व्यर्थ है।”
सारांश
समाज की दो अलग विचित्र विचारधाराओं वैराग्य और सांसारिकता में विरोध होते हुए भी दोनों मनुष्य के बीच जीवित हैं। चित्रलेखा उसी समाज का हिस्सा है जिसका हिस्सा कुमारगिरि है। जिस सभा में चित्रलेखा अपने नृत्य से सभा का मनोरंजन करती है, उसी सभा में कुमारगिरि शास्त्रार्थ करने आते हैं। जब कुमारगिरि और चित्रलेखा टकराते हैं तो दो विपरीत विचारधाराएँ टकराती हैं और एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। संसार और वैराग्य में द्वंद्व पैदा होता है और प्रखर होकर कई रूपों में सामने आता है। कहीं वह प्रेम बनता है, तो कहीं वासना, कहीं छलावा। चित्रलेखा के विलासी होने के पीछे उसके अपने तर्क हैं और कुमारगिरि के विरागी होने के पीछे उनके अपने। जीत-हार किसी की नहीं होती क्योंकि तर्क का अंत नहीं है।
लेखक ने चित्रलेखा के अविस्मरणीय पात्र पर गंभीर प्रकाश डाला है और यह कहानी को और रोचक बनाती है। चित्रलेखा उस प्राचीन काल में एक नर्तकी होकर भी ज्ञानी है, जिसके तर्क काफी सटीक और ज्ञान से भरे होते हैं। चित्रलेखा, एक सशक्त महिला के जीवन का प्रतीक है - सुंदर और दृढ़, अपनी पसंद से प्रेरित, स्वभाव से उदार और अडिग ईमानदार। वह महिलाओं के इर्द-गिर्द फैली रूढ़ियों को तोड़ती है और एक सटीक और मानवीय चित्रण प्रस्तुत करती है। चित्रलेखा अपने जीवन की जिम्मेदारी लेती है और सामाजिक मानदंडों और दबावों से प्रभावित होने से इनकार करती है। उसका आत्म-चिंतन और अपने अहंकार को मुक्ति के मार्ग में बाधा न बनने देना उसे विजय की ओर ले जाता है, क्योंकि वह जुनून के भीतर शांति और शांति के भीतर जुनून दोनों पाती है।
कुमारगिरि एक योगी हैं, जो अपने आप को भोग-विलास और मानव सुख से दूर मानते हैं। परंतु क्या वास्तव में कोई मनुष्य अपने मन पर काबू पा सकता है? वहीं बीजगुप्त, एक राजा होकर, क्या एक नर्तकी से सच्चा प्रेम कर सकता है?
निष्कर्ष
इस उपन्यास में दिल और दिमाग के बीच द्वंद्व चलता रहता है और कर्तव्य पर सवाल उठते हैं। प्रेम और वासना के बीच युद्ध दिखाया गया है कि कैसे मनुष्य भटक कर अपनी वासनाओं को प्रेम का नाम दे देते हैं। प्रेम और वासना के भेद के बारे में स्पष्ट करता है कि वासना पागलपन है, यह क्षणभर के लिए होती है और इसलिए समय के साथ दूर हो जाती है, लेकिन प्रेम गंभीर है जिसका अस्तित्व शीघ्र नहीं मिटता। यह उपन्यास दर्शाता है - ‘‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।’’