ईश्वर क्या है?"
"भाई, मेरा तो मानना है कि ईश्वर एक मिथक है, एक मानवीय रचना जिसको साधन बनाकर मनुष्यों को कठपुतलियों की तरह नचाया गया है। सदियों से कितने युद्ध हुए हैं, महासागर जितना लहू बहा है ईश्वर के नाम पर।"
"मैं निश्चितता से यह तो नहीं कह सकता कि ईश्वर है या नहीं। परन्तु ईश्वर के होने का विचार मुझे आश्वासन एवं साहस देता है। और अगर मान भी लिया जाए कि ईश्वर एक मानवीय रचना है तो भी ईश्वर की अवधारणा ने मानव जीवन में कई महत्वपूर्ण मूल्य स्थापित किए हैं।"
"कौन से मूल्य? यह मूल्य तो मानवता के स्वयं के हैं।"
"हो सकता है। लेकिन ईश्वर की अवधारणा ने इन मूल्यों को एक संरचना दी है। उसने हमें इन मूल्यों को आंतरिक बनाने, इन्हें अपने जीवन में लागू करने के लिए एक ढांचा दिया है। ईश्वर का विचार डर और आशा दोनों का स्रोत है। डर, इसलिए कि ईश्वर की नाराज़गी का डर लोगों को नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है, और आशा इसलिए, कि ईश्वर की कृपा से मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति की उम्मीद रहती है।"
"लेकिन इस ढांचे ने ही लोगों को बांधा है, उनके विचारों को सीमित किया है। ईश्वर की अवधारणा अंधविश्वास को जन्म देती है। आप कोई सवाल नहीं कर सकते, स्थापित पद्धति से अलग नहीं हो सकते। आपके विचारों की स्वतंत्रता ही समाप्त हो जाती है।"
"फिर तो आज ईश्वर की जगह मुख्यधारा विचारधाराओं ने ले ली है। राष्ट्रवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद जैसी विचारधाराएं लोगों को एक निश्चित विश्वदृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं। लोग इन विचारधाराओं को भी बिना किसी प्रश्न या संदेह के मान लेते हैं, उसी तरह जैसे हम ईश्वर के अस्तित्व को मान लेते हैं। अपनी विचारधारा के ख़िलाफ़ लोगों को उसी प्रकार दंडित करने का मन होता है जैसे किसी कट्टरपंथी का ईशनिंदक को। यह एक तरह से आधुनिक युग का अंधविश्वास है।"
"फिर तो ईश्वर विचारों का समूह हो गया जिसे हम मानते हों?"
सन् १९९६, पटना के दिल माने जाने वाले बोरिंग रोड के किनारे छोटी सी चाय की दुकान को हर दिन सुबह १० बजे ये दोनों युवक अखाड़ा बना देते थे। आस-पास के लोगों ने भी अब समय बांध लिया था। वो भी अब चाय पीने इसी समय आते और अखाड़े के दर्शक की तरह खुद को किसी एक पहलवान की तरफ़ पाते। पर यह लड़ाई कुश्ती से भी अधिक मनोरंजक थी, हर दिन नए तर्क रूपी दांव और कोई नया विषय । आज भी कुछ अलग नहीं था। हर दिन के भांति उस दुकान पर लोगों की भीड़ थी। सब के हाथों में अख़बार था, जिसके पहले पन्ने पर बड़े अक्षरों में खबर छपी थी, "नाधी संहार, भोजपुर में 9 भूमिहार जाति के लोगों को नक्सलवादियों ने मौत के घाट उतार दिया।" पर किसी का ध्यान अभी कुछ देर के लिए अखबार पर था ही नहीं, सब इनकी बहस सुन रहे थे।
“अरे भाई चलो चलो, अब तो तुम दोनों की चाय भी खत्म हो चुकी है। हर दिन सुबह-सुबह चालू हो जाते हो। फालतू की भीड़ लगा रखी है दुकान पर।"
"बस जा रहें चाचा। चाय के पैसे खाते में लिख देना।"
"दो साल से खाता चल रहा है तुम्हारा। तुम्हारे पैसे चुकाने से पहले ये ईश्वर मुझे न बुला ले। कब चुकाओगे पैसे?"
"बस इस साल रुक जाओ चाचा। फिर आइएस अधिकारी बन कर जब हम आयेंगे ना, तब पूरे पटना में घुमाएंगे तुम्हें लाल बत्ती वाली गाड़ी में।"
"जाओ-जाओ, दो साल से यही कह रहे हो।"
मनोज पासवान और पंकज पांडे, कॉलेज के दिनों से ही बहुत अच्छे दोस्त थे। दोनों अक्सर साथ में ही पाए जाते थे। हाल कुछ यूं हो गया था, एक अकेला मिल जाता तो लोग अवश्य दूसरे के बारे में पूछ लेते। पंकज पटना का ही रहने वाला था एवं एक मध्यम वर्गीय परिवार से आता था। पिता जी सरकारी क्लर्क थे। बड़ी सामान्य ज़िंदगी के बाद भी उसके चेहरे पर सदैव एक मुस्कान रहती थी। वहीं मनोज ग्रामीण परिवेश से था। पिता गाँव में ज़मींदारों के यहां खेती करते थे। बड़ा भाई अमित सूरत में मज़दूरी करता था। मनोज बचपन से ही पढ़ाई में उत्कृष्ट था। बड़े भाई का सपना था मनोज को अफ़सर बनते देखना। जब माता-पिता उसे कुछ काम करने को कहते तो अमित कूद पड़ता, "हम करत है ना काम, मनोजवा तो अफसर बने ला जन्म लिया है।"
शिक्षकों की उपेक्षा के बावजूद उसने दसवीं और बारहवीं के इम्तिहान में ज़िले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अमित की ज़िद पर मां के बचे हुए गहने बेच मनोज का दाखिला कॉलेज में कराया गया था। शायद इन्हीं कारणों से मनोज के व्यवहार में संजीदगी बस गई थी।
पंकज मनोज का इकलौता दोस्त था। उसके घर वालों को यह बात अधिक पसंद तो न थी पर पंकज के सामने कुछ भी बोलने पर वो आग सी गर्मी ले समुद्र की लहरों के भाँति उफ़ान मारता था। समाज की समस्याओं पर दोनों दिन-दिन भर बहस करते। कई बार दोनों के नज़रिये भिन्न होने पर भी लक्ष्य एक ही रहता, एक बेहतर समाज का निर्माण। मनोज के लिए सिविल सेवाएँ केवल एक करियर नहीं, अपितु एक हथियार थीं, उस व्यवस्था को ध्वस्त करने का एक मौका जिसने सदियों से उसके लोगों को नीचे रखा था। पंकज, अधिक विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से अपने दोस्त के आदर्शवाद को साझा करता था, हालाँकि उसकी समझ एक अलग लेंस से छनकर आती थी। पंकज गांधी के आदर्शों से प्रेरित था और मनोज अम्बेडकर के विचारों से। पूना पैक्ट को ले कर घंटों बहस चलती थी इन लोगों के बीच में। मनोज का मानना था कि गांधी जी ने अपनी लोकप्रियता का दुरुपयोग करके अम्बेडकर पर भावनात्मक दबाव डाल समझौता किया। अलग निर्वाचक मंडल से दलितों की स्थिति आज बहुत बेहतर होती। तो वहीं पंकज का मानना था कि समाज में विभाजन को रोकने हेतु यह समझौता अत्यंत आवश्यक था।
इन्हीं बहसों के बीच परीक्षा का दिन कब आ गया पता ही ना चला। अमित खास तौर पर छुट्टी ले कर आया था अपने भाई को परीक्षा केंद्र तक छोड़ने। अमित को भी पढ़ाई का शौक था पर परिस्थितियां कुछ ऐसी थी कि यह संभव न हो सका। मनोज से वो अपने सपने भी जी लेना चाहता था। परिणाम का दिन आया। दोनों की मेहनत रंग आई और दोनों मित्र एक साथ यूपीएससी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए। उसी चाय की दुकान पर साथ मिलकर दोनों ने व्यवस्था बदलने का प्रण लिया। मनोज को लगा अब वह जाति प्रथा के दलदल से बाहर निकल चुका है। सभी सहपाठियों ने पंकज की बहुत तारीफ़ की परन्तु वे मनोज के परिणाम के प्रति उदासीन थे।
"इन लोगों का क्या है, भीख में नौकरी मिल जाती इन्हें आरक्षण के नाम पर।" ये टिप्पणियां मानो मनोज के सीने में बाणों की भाँति चुभ रही थी। ये बाण उसे वापस वास्तविकता के पटल पर ले आए थे कि उसकी जाति उसका पीछा कभी नहीं छोड़ने वाली है।
१ दिसंबर १९९७, आईएएस प्रशिक्षण शुरू हो चुका था। सामान्य दुनिया से दूर अब मनोज खुद को सर्व शक्ति शाली महसूस कर रहा था। उसे विश्वास था यहाँ से जाने के बाद वह पूरी व्यवस्था को बदल देगा। यहाँ उसके कई दोस्त भी बन गए थे। एक दिन उन लोगों के बीच बिहार की कानून व्यवस्था, गुंडाराज, जाति आधारित हिंसा पर बात चल रही थी। मनोज बढ़-चढ़ कर इस विषय में भाग ले रहा था। अचानक वह पूछता है, "आज ये विषय कैसे निकल पड़ा?"
"अखबार नहीं पढ़ा क्या तुमने? लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार, ५८ दलितों को रणवीर सेना ने बारा नरसंहार का बदला लेने के लिए मार डाला।" मनोज के कानों में जैसे शीशा पिघलाकर डाला जा रहा था। लक्ष्मणपुर बाथे... उसका गाँव... नरसंहार... माँ... पिताजी... अमित भैया... एक पल के लिए सबकुछ थम सा गया। सांसें भारी हो गई, जैसे किसी ने छाती पर पत्थर रख दिया हो। आँखें पथरा गईं, पर एक भी आँसू नहीं छलका। शून्य... बस एक भयानक शून्य उसके भीतर फैल गया।
फिर एक चीख गूंज उठी उसके भीतर से, पर बाहर नहीं निकली। एक अतृप्त चीख, जो उसके गले में ही घुटकर रह गई। माँ की ममता भरी आवाज़, पिताजी की शांत निगाहें, अमित भैया की वो हँसी जो कभी खामोश नहीं होती थी - सब कुछ एक झटके में राख हो गया? कैसे? क्यों? ये सवाल उसके दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहे थे, हर प्रहार के साथ उसकी आत्मा को और गहरा ज़ख़्म देते हुए।
उसका गाँव... वो मिट्टी जहाँ उसने कदम रखना सीखा था, वो आँगन जहाँ माँ की लोरी सुनकर सोया करता था, वो खेत जहाँ पिताजी के साथ पतंग उड़ाया करता था सब कुछ खून से लाल हो गया? उसके अपने लोग... उसका परिवार... कैसे कोई इतना निर्दयी हो सकता है? कैसे कोई इतनी नफ़रत से भरा हो सकता है?
मनोज की आँखों के सामने वो मंज़र घूमने लगा, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। माँ का लहूलुहान चेहरा, पिताजी की बेबस आँखें, अमित भैया का निष्प्राण शरीर... उसका दिल फट रहा था, हर धड़कन के साथ एक नई पीड़ा, एक नई टीस। वो आईएएस बनने का सपना, वो समाज को बदलने का इरादा - सब कुछ उस नरसंहार की आग में जलकर खाक हो गया। अब उसके पास क्या बचा था? वो तुरंत गाँव के लिए निकल पड़ा। वहाँ जा कर पता चला कि नींद में उसके पूरे परिवार को मार दिया गया। गाँव के बचे हुए लोग बता रहे थे कि प्रशासन ने कोई मदद नहीं की, उल्टा उन दरिंदों का साथ दिया। मनोज का मानो जीवन ही समाप्त हो गया। जिस भाई के सपने को उसे जीना था, अब वो भाई ही नहीं रहा। जिस प्रशासन का हिस्सा बन वह समाज बदलना चाहता था, उस प्रशासन ने ही उसे सबसे बड़ी चोट पहुंचाई। पंकज को जैसे ही यह खबर पहुंची वह सब कुछ छोड़ कर लक्ष्मणपुर बाथे चला गया। मनोज अपने घर पर नहीं था। उसने गांव वालों से पूछताछ करी, हफ़्ते भर उसे ढूंढा पर उसका कुछ पता न चला।
सन् १९९९, मनोज की याद और चिंता अभी भी पंकज को परेशान कर रही थी। उसे लगता था कि मनोज के ज़िम्मे का काम भी अब उसे ही करना है। पर एक आईएएस अधिकारी हो वह खुद को एक नौकरशाही भूलभुलैया में फंसा हुआ पाता है। उसने हर स्तर पर भ्रष्टाचार देखा, राजनीतिक प्रभाव के बोझ तले न्याय के पहिये थमते हुए देखे। सुधारों को लागू करने के उसके प्रयासों को नौकरशाही के भीतर से प्रतिरोध और राजनीतिक वर्ग से शत्रुता का सामना करना पड़ा। उसे एक मुसीबत का निर्माता, "ज़मीनी वास्तविकताओं" से बाहर एक आदर्शवादी कहा गया। दूरस्थ नक्सल प्रभावित ज़िले में उसका स्थानांतरण एक पतले पर्दे की सज़ा थी।
एक दिन, पंकज को खुफिया सूत्रों से खबर मिली कि नक्सली इस गाँव पर हमला करने वाले हैं। उसने तुरंत अपने विश्वस्त सैन्य बल को इकट्ठा किया और गाँव की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करने की योजना बनाई। रात घनी हो चुकी थी, चारों तरफ सन्नाटा पसरा था, बस हवा में एक अजीब सी बेचैनी थी। पंकज और उसके जवान गाँव के बाहर मोर्चा संभाले नक्सलियों के आने का इंतजार कर रहे थे। हर आहट पर उनकी बंदूकें तन जाती थीं, हर साये पर उनकी निगाहें टिक जाती थीं। और फिर, दूर से गोलियों की आवाजें आने लगीं। पंकज और उसके जवान पूरी तरह से सतर्क थे। जैसे ही नक्सली गाँव में घुसे, सुरक्षा बलों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। गोलियों की तड़तड़ाहट, विस्फोटों की गड़गड़ाहट, और घायल नक्सलियों की चीखें हर तरफ मौत का मंज़र था।
घंटों तक मुठभेड़ चलती रही। कई नक्सली मारे गए, कुछ भागने में सफल रहे। लेकिन उनका मुखिया अभी भी लड़ाई में डटा हुआ था। पंकज जानता था कि उसे पकड़ना आवश्यक है। वो एक-एक कदम फूंक-फूंक कर आगे बढ़ा। और फिर, वो आमने-सामने आ गए। दोनों के बीच में बस एक दीवार थी, एक टूटी हुई दीवार। दीवार के कोने से पंकज को एक चेहरा दिखा, और वो चीख उठा - "मनोज !”
उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं, दिल ज़ोर से धड़कने लगा, और दिमाग सुन्न हो गया। उसकी उंगलियाँ बंदूक के ट्रिगर पर जम गईं। पंकज और मनोज के बीच एक दीवार थी, एक ऐसी दीवार जो सालों से खड़ी थी, और जो अब और ऊंची एवं मज़बूत हो गई थी।
"मनोज तुमने ऐसा क्यों करा? हमने तो एक साथ नए भारत का ख़्वाब देखा था।”
"आगे मत आना पंकज, मैं सच में गोली चला दूंगा। कौन सा भारत? वो भारत जिसमें मेरे लोग आते ही ना हो। उस दिन चाय दुकान पर हमने बात करी थी ना। हमारे तुम्हारे ईश्वर अलग हैं पंकज ।"
तभी पीछे से नक्सलियों का एक और समूह आता है और मनोज उन्हीं के साथ रात के अंधेरे में मिल जाता है।