मन्नू भंडारी द्वारा लिखा गया उपन्यास ‘स्वामी’, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय की इसी नाम की कहानी का उपन्यासिकरण है। यह केवल एक कहानी का रूप परिवर्तन नहीं बल्कि उसमें समकालीन भावनाओं और स्त्री दृष्टिकोण की प्रस्तुति भी है। यह उपन्यास स्त्री के सामाजिक और वैवाहिक संबंधों के बीच उत्पन्न मानसिक द्वंद्व को सामने लाता है।
मन्नू जी ने उपन्यास में कुछ बदलाव किए हैं जैसे शरत जी की सौदामिनी ग्लानि से भरी पड़ी है परंतु अपनी इच्छाओं को लेकर यह ग्लानि मन्नू जी की मिनी में नहीं दिखती। शुरुआत से ही मिनी एक शिक्षित, विचारशील और सशक्त स्त्री के रूप में सामने आती है जो आत्मनिर्णय में विश्वास रखती है। मिनी के बचपन में ही उसके पिता का निधन हो गया था जिसके कारण वह और उसकी माँ, मिनी के मामा मणि बाबू के पास ही रहने लगते हैं। मणि बाबू दर्शन शास्त्र में गहरी रुचि रखते हैं और अकसर ही नरेन को घर बुलाकर विभिन्न विषयों पर चर्चा किया करते हैं। इन विचार-विमर्शों में मिनी भी बड़े चाव से भाग लेती है और इस निरंतर संवाद के कारण मिनी और नरेन के बीच वैचारिक संगति धीरे-धीरे विकसित होती है।
किंतु इससे पहले मिनी अपने प्रेम के बारे में अपने मामा को बता पाती, उनका असामयिक देहांत हो जाता है और विपरीत परिस्थितियों में मिनी का विवाह घनश्याम से करवा दिया जाता है।
विवाह के प्रारंभ से ही मिनी को यह बंधन स्वीकार नहीं होता। वह मानसिक रूप से अपने अतीत में उलझी रहती है और घनश्याम से दूरी बनाए रखती है। घनश्याम, जो एक संवेदनशील और परिपक्व पुरुष है, मिनी की मनोदशा को समझने का हर संभव प्रयास करता है। किन्तु वैचारिक विषमता के कारण मिनी अपने अंदर चल रहे आंतरिक द्वंद्व को कभी किसी के सामने अभिव्यक्त नहीं कर पाती। कहानी एक दिलचस्प मोड़ तब लेती है जब एक दिन अचानक मिनी का अतीत उसे अपनी ओर खींचता है और वह अपने वर्तमान जीवन को पीछे छोड़कर भावनाओं के प्रवाह में बह जाती है। यह निर्णय न केवल उसके व्यक्तिगत जीवन में हलचल पैदा करता है बल्कि उसके वर्तमान संबंधों को भी एक गंभीर संकट में डाल देता है। समय के साथ मिनी के भीतर एक गहरी समझ विकसित होती है। उसे यह एहसास होने लगता है कि रिश्ते स्थिर नहीं रहते, वे बदलते हैं, रूप लेते हैं और कभी-कभी तो जीवन में नए रिश्ते भी जन्म लेते हैं। उसे यह भी महसूस होता है कि जिन संबंधों को वह ठुकराने के करीब थी, उन्हें संभाले रखने में उसके भीतर के संयम और समझदारी की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।
रिश्तों की नींव विश्वास पर टिकी होती है। जब यही विश्वास टूटता है तो केवल संबंध ही नहीं, आत्मा भी घायल होती है। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति उस विश्वास को भंग कर चला जाए और समय बीतने पर लौटने की कोशिश करे तो क्या उसको फिर से स्वीकार करना संभव है? इसी सवाल के अंदर उपन्यास की मूल भावना और 'स्वामी' शीर्षक का गूढ़ अर्थ धीरे-धीरे सामने आने लगता है।
मिनी के जीवन में अथवा इस वृतांत में ‘स्वामी’ शब्द की सार्थकता क्या है इसे मन्नू जी ने इन शब्दों में साँझा किया है- “घनश्याम के प्रति उनका पहला भाव प्रतिरोध और विद्रोह का है जो क्रमश: विरक्ति और उदासीनता से होता हुआ सहानुभूति, समझ, स्नेह और सम्मान की सीढ़ियों को लाँघता हुआ श्रद्धा और आस्था तक पहुँचता है और यहीं ‘स्वामी’ शीर्षक पति के लिए पारस्परिक सम्बोधन मात्र न रहकर, उच्चतर मनुष्यता का विश्लेषण बन जाता है, ऐसी मनुष्यता जो ईश्वरीय है।”
मन्नू भंडारी का प्रमुख गुण उनकी भाषा की सहजता है। संवाद सूक्ष्म होते हुए भी प्रभावशाली हैं। लेखिका ने स्त्री की अंतरात्मा की आवाज को बड़ी सशक्तता से प्रस्तुत किया है। उपन्यास में कई जगहों पर आत्म-चिंतन और सामाजिक प्रश्नों को खूबसूरती से पिरोया गया है जैसे - “जिसे आत्म कहते हैं, वह क्या औरतों की देह में नहीं है? उनकी क्या स्वतंत्र सत्ता नहीं है? वे क्या सिर्फ़ आई थीं मर्दों की सेवा करने वाली नौकरानी बनने के लिए?”
‘स्वामी’ एक स्त्री की आत्मचेतना और वैवाहिक जीवन में आने वाले संघर्षों की कहानी है। यह उपन्यास प्रेम, स्वतंत्रता और स्वीकार्यता के बीच झूलती एक विचारशील नारी की कथा है जो जीवन की जटिलताओं के बीच अपने लिए रास्ता खोजती है। मन्नू भंडारी ने इसे सादगी के साथ प्रस्तुत किया है जिससे यह कहानी केवल एक संबंध की नहीं बल्कि एक विचार की जीवंत प्रस्तुति बन जाती है।