राजा राममोहन रॉय, एक समाज सुधारक के रूप में, इतिहास में अपनी एक अहम भूमिका रखते हैं। रॉय धार्मिक संकीर्णताओं के प्रखर आलोचक रहे और इन्हें हटाने में ब्रिटिश राज का सहयोग अहम मानते थे। रॉय का मानना था कि ब्रिटिश राज के साथ पनपने वाली पश्चिमी संस्कृति को यदि भारतीय मूल संस्कृति के साथ जोड़ दिया जाए, तो निश्चित रूप से एक बेहतर समाज स्थापित किया जा सकता है। इसी कारण उन्हें, एक संस्कृत विद्यालय की स्थपना सार्थक नहीं लगी और वे पश्चिमी शिक्षा के पक्षधर थे। राम मोहन रॉय ने जिस सहजता और दृढ़ता से इस पत्र में अपनी बात रखी है, वह सराहनीय है! संस्कृत की प्रतीकात्मक सच्चाई पर गहरा प्रहार करते हुए और साथ ही ब्रिटिश राज की दोहरी मानसिकता को सामने रखते हुए, रॉय ने अपने समय से आगे की बात कही है।
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सरकार द्वारा, कलकत्ता में, एक नए संस्कृत विद्यालय की स्थापना भारत के मूल निवासियों का, शिक्षा द्वारा, उत्थान करने की प्रशंसनीय आकांक्षा को प्रदर्शित करता है - एक ऐसा कृपादान जिसके लिए उन्हें सदा ब्रिटिश सरकार का आभारी रहना चाहिए; इसके साथ ही मानव जाति का कोई भी शुभचिंतक यही कामना करेगा कि इस उत्थान के प्रयास, सबसे प्रबुद्ध मूल्यों द्वारा निर्देशित हों, जिससे ज्ञान की धारा सही दिशा में प्रवाहित हो।
स्वाभाविक रूप से, जब इस शिक्षणालय की घोषणा की गयी तब अंग्रेजी सरकार ने भारतीय जनता के शिक्षण के लिए यथेष्ट धनसम्पत्ति समर्पित की। ऐसे में हम आशावादी थे कि यूरोपी, प्रतिभावान एवं शिक्षित, महानुभाव भारतीयों को गणित, भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य महत्वपूर्ण विज्ञानों की शिक्षा देंगे जिसमें यूरोप ने वो दक्षता हासिल कर ली है, जिसने उन्हें संसार के दूसरे हिस्सों से कुछ ऊँचे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है।
इसके विपरीत, हमने पाया कि सरकार हिन्दू पंडितों के अधीन एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना कर रही है। इस तरह का शिक्षण भारत में पहले से ही प्रचलित है। यह शिक्षणालय (जो की चरित्र में, लॉर्ड बेकन के समय के पहले के, यूरोपी गुरुकुलों के समान है) केवल नवयुवकों को व्याकरण के ब्योरे और आध्यात्मिक भेदों से अवगत कराएगा; जिसका कोई भी व्यावहारिक उपयोग, समाज और विद्यार्थी के लिए नहीं है। छात्रों को दो हज़ार साल पुराना ज्ञान दिया जायेगा, जिसके साथ मीमांसात्मक लोगों द्वारा जोड़ी गयी व्यर्थ और खोखली बारीकियाँ भी होंगी; ऐसा, आमतौर पर, भारत के सभी हिस्सों में पहले ही पढ़ाया जाता रहा है।
संस्कृत, अपने आप में, एक दुःसाध्य भाषा है। यह एक सर्वज्ञात सत्य है कि युगों से इसका प्रयोग ज्ञान के दायरे को सीमित और संकुचित करने के लिए किया गया है; और इसमें पारंगत होने के बाद भी जो फलस्वरूप विद्यार्जन है, वो किये गए प्रयासों के साथ न्याय नहीं करता।
वेदान्त का दर्शन कहता है कि सभी दिखाई देने वाली वस्तुओं का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, कि पिता, भाई, आदि कोई वास्तविक इकाई नहीं है और फलस्वरूप उन्हें जो स्नेह दिया जा रहा है वह इसके हकदार नहीं हैं; और जितनी जल्दी वे इस मोह से मुक्त होंगे, इस दुनिया का त्याग करेंगे, उतना बेहतर है। किस तरह आत्मा परमात्मा में विलीन होती है? ईश्वरीय सत्व से इसका क्या संबंध है? - वेदान्त के ऐसे प्रसंगों पर चिंतन से सामाजिक बेहतरी नहीं होती दिखती और न ही युवा इस तरह वेदान्त के धर्म-सिद्धांत द्वारा अपने आप को समाज के बेहतर सदस्यों में शामिल कर पाएंगे।
यदि यह अभीष्ट होता कि ब्रिटिश राज्य को असल ज्ञान से वंचित रखा जाए, तो यकीनन मध्यकालीन दार्शनिक व्यवस्था को बेकन-दर्शन ने विस्थापित न किया होता, जिसने मात्र अनभिज्ञता को बढ़ावा दिया है। ठीक इसी प्रकार, यदि संस्कृत शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश सभा की नीति होती तो इस प्रयास की गणना केवल देश को अंधकार में रखने में की जाती। लेकिन, चूँकि, सरकार का उद्देश्य मूल निवासियों का सुधार करना है, इसलिए सरकार को शिक्षा के प्रति अधिक उदार और प्रबुद्ध पद्धति को प्रोत्साहित करना चाहिए। साथ ही गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, शरीर-रचना विज्ञान, अन्य उपयोगी विज्ञान को शामिल कर और चंद कुशल एवं यूरोप में शिक्षित महानुभावों को नियुक्त कर और ज़रूरी पुस्तकों, साधनों एवं अन्य उपकरणों से सुसज्जित एक महाविद्यालय प्रदान कर इस उद्देश्य को पूर्ण किया जा सकता है।
इस विषय को आपकी प्रभुता के सम्मुख प्रस्तुत करना, मैं अपने कर्तव्य का निर्वहन समझता हूँ - वह कर्तव्य जो मेरा अपने देशवासियों के प्रति है और उस प्रबुद्ध राज और सभा के प्रति जिन्होंने अपनी उदारता इस देश पर दिखाई है, जो यहां के निवासियों को बेहतर बनाने की इच्छा से प्रेरित है, और इसलिए विनम्रतापूर्वक विश्वास रखता हूँ कि जिस स्वतंत्रता से मैंने अपने विचारों को व्यक्त किया है, उसे आपकी प्रभुता क्षमा कर देगी।
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Source: Rammohun Roy, The English Works of Rammohun Roy (Allahabad, India: Panini Office, 1906), pp. 471-74.