एक रात और ज़िन्दगी
मैं कतरा कतरा बिखर रहा हूं
ऐ रात तेरे आगोश में समाया जा रहा हूं
तुझको छु रहा हूं
तुझको देख रहा हूं
तुझको सुन रहा हूं,
एक नज़्म लिख रहा हूं
न कल की फ़िक्र है,
न कोई आरज़ू है
दिल ने जैसे धड़कना, बंद कर दिया हो
पर रुक रुक के सीने में टीस सी उठती है
कोई चांदनी बन झील पर टहलती है।
कभी मैं तमन्ना से जल उठता हूँ, फिर पानी बन आँखों से रिसता हूँ,
इन तनहा रातों का कुछ तो सहारा होता
तुम होते, कुछ ज़िक्र तुम्हारा होता
लेकिन गहरी शांति मुर्दा ख़ामोशी
मैं भी चुप हूँ
रात तुम भी चुप हो
बस सूखे पत्तों की सरसराहट
पास सड़क से आ रही साइकिल की आवाज़ में,
शायद कुछ बोलना चाहती हो
कभी कभी शैतानी में सोचता हूं कि चिल्ला दूँ
बस इस ख़ामोशी को तोड़ने के लिए
इस बेहद जानलेवा ख़ामोशी को!
आरज़ू मौज सी उठती है
भीतर एक नदी बहती है
पर शायद लोग पागल समझें
सुबह की किरणें आएँगी और मुझको समेटेंगी
एक कामचलाऊ तौर से जोड़ेंगी,
और मैं अपने कागज के सफीने में चल पडूंगा,
रोज़गार के उदास समुंदरों में सफर करने
इक और दिन ढलेगा, एक और रात आएगी
मैं,
फिर बिखर जाऊंगा
इसी मुसलसल बिखरने समेटने को ज़िन्दगी का नाम दिया है।