सर पर गठरी, पेट में भूख;
फ़िर भी थामे है, उस नन्हीं जान का हाथ।
भरी दुपहरी में बेबस होकर,
जिस गाँव को अनमने से विदा करके,
चला गया था भूख मिटाने,
उसी भूख की तलाश में,
लौट चला है गाँव की ओर।
रास्ते थमने का नाम नहीं लेते,
कदम थकने से बाज नहीं आते,
पर कुछ पाने की आस में,
वे थकते नहीं बस चलते जाते।
चिलचिलाती धूप में जलता हुआ तन,
जो देता है सबको सुकून की छाया,
निर्मम परिस्थिति ने जला दिया उसको,
ठण्डी छाँव की तलाश में,
निकल पड़ा एक आस लिए।
धैर्य इतना कि ठान चुका है,
या तो घर लौट जाएगा,
नहीं तो राह में विलीन हो जाएगा।
खुद के पेट ने तो सीख ली,
भूखे रहने की कला,
पर मासूमों को कैसे सिखाए,
यह निर्दयी कला।
आशा की किरण आँखों में लिए,
अश्रुधारा को छुपाते हुए,
मज़दूरों की टोली निकल पड़ी,
जलते पथ पर गाँव की ओर।