यूंही ताका उस पार कहीं,
जीवन के सर्द सवेरे में,
दिखता था कोहरा घटती चाहों का,
अदृश्य हो रही राहों का,
अस्तित्व की तलाश में
कोई लक्ष्य दिखे ना दिखे,
आँखों पर पहरा डाले,
ये कोहरा छटे ना छटे,
नेपथ्य में ताकने की आदत सी हो गई है,
यथार्थ को आंकने की,
भविष्य में झाँकने की आदत सी हो गई है।
पीछे छूटी उदास ठंडी रात थी,
अंधेरे में देख सपने सुबह के उजाले के,
थक गई थी आँखें पर कहाँ हताश थीं,
ठिठुरते कंपकपाते हाथों ने,
जब वह अंधेरा जलाया था,
तब कहाँ सोचा था,
अंधेरे की काली आग में हर रोशनी खो जाएगी,
अंधेरे की सफेद राख से सुबह धुंधली हो जाएगी।
भटक कर भ्रम की इस धुंध में जब,
हुई अकुलाहट स्वयं के मिट जाने की,
कब तक रुक कर करूँ प्रतीक्षा,
गंतव्य स्पष्ट हो जाने की,
पाँव चलते रहे निरंतर,
अनजान दिशा की ओर,
बस आस में बीती रात,
उलझन में हुई भोर,
पर विश्वास सदा था बना रहा,
कि जब प्रकाश की बूँदे बरसेंगी
सब हो जाएगा साफ़,
ये आँखें फिर ना तरसेंगी।
फिर तुम्हारी बातों से अवगत हुआ,
तब किरणों के आलोक भुला वह सूर्य,
अनल मात्र का देव लगा,
उसके आगमन का सार्थक भय,
कि उसकी रोशनी इतनी होगी,
जिसमे सब साफ तो हो जाएगा,
पर आग में उसकी आँखें झुलस जाएंगी
ना भी झुलसी तो सत्य देख सूख जाएंगी।
भविष्य के इस सत्य का आभास है?
ये राहें जो तुम्हारी किताबों में धर्म और आदर्श की थीं,
या जो उन्ही में झूठ पाप संघर्ष की थीं,
जो आह्लाद विनोद प्रेम और सुलह की थीं
या जो वेदना, नीरसता, घृणा और विरह की थीं
उनमें कोई अंतर नहीं,
क्योंकि राहें कहीं जाती नहीं, नियति हमारी कुछ भी नहीं
किसी पे भी चल के टूट के बिखरना ही लिखा है,
क्योंकि मंज़िल का अस्तित्व नहीं।