जब नाम वैवस्वत लिए मन्वंतरः चलने लगा,
तब सप्तऋषि निर्मित हुए जब था अधम बढ़ने लगा।
ब्रह्मा कहे, हे ऋषिगणों! जाओ धरा की गोद में
ये देखना कुछ न गलत हो काम या आमोद में।।1।
ऋषि अत्रि थे पहले ऋषि, ऊँचा जगत में नाम है,
ब्रह्मा कहे, हे पुत्र मेरे! मन तिरा निष्काम है।
सत्काम अरु करुणा यहाँ तेरे ह्रदय के अंग हैं,
जाओ धरा आशीष मेरा अब तुम्हारे संग है।।2।
जीवन मिरा होगा समर्पित जीव के कल्यान में,
कहके चले तब ऋषि धरा सब बात करके ध्यान में।
कर्दम मुनी की बालिका जो हर तरह गुणवान थीं
अनुसूइया के नाम से अपने पिता की शान थीं।।3।
ऋषि अत्रि वा अनुसूइया सब भांति वैवाहित हुए,
आके जगह चित्रकूट वे इक आश्रम निर्मित किए
ऋषि अत्रि वहँ सब बालकों को ज्ञान थे देने लगे,
अनुसूइया से मात जैसा स्नेह सब लेने लगे।।4।
मैं हो गया हूँ धन्य पाकर के तुम्हे अर्धांगिनी,
ऋषि अत्रि बोले धन्य मैं जो तुम मिरी हो स्वामिनी।
अनुसूइया बोली प्रभू ये तो मिरा सम्मान है,
निर्जीव मेरी देह का जो आप जैसा प्रान है।।5।
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*माँ अनुसूइया द्वारा जगत पे आये संकट का निवारण*
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मांडव्य नामक एक ऋषि थे दूसरे वन में बसे,
वहँ भक्त उनके वार्ता इक दूसरे से कह रहे।
ऋषि ध्यान में अति लीन हैं, बाधा पड़े ना ध्यान में,
दोनों वहाँ से चल दिए यह बात करके कान में।।6।
दो चोर आ जाते वहाँ पाकर ऋषि को ध्यान में,
तब बात धीरे से अधम की बोलते हैं कान में।
"आ जाएँ राजा के सिपाही देख कर हमको यहाँ,
लाए चुरा जिस माल को देते छुपा उसको यहाँ"।।7।
दोनों चुराए माल को हैं भागते रख के वहीं,
आते सिपाही आश्रम को चोर जब मिलते नहीं।
तब पूछते हैं वे सिपाही आ ऋषी की ओर को
"देखा यहाँ से भागते तुमने कहीं दो चोर को?"।।8।
ऋषि ध्यान में थे लीन इतने बात कोई ना सुने,
दोनों सिपाही तब लगे सामान को थे ढूंढने।
दूजा सिपाही बोलता "देखो मुझे ये क्या मिला!
लगता मुझे अब ये मुनी उन चोर से है जा मिला।।9।
लगता मुझे ये भी कि ये उन चोर का सरदार है,
लेकर चलें आओ जहाँ महराज का दरबार है।
तब खींचकर ऋषि को वहाँ से ले गए दरबार में,
तोड़े नहीं पर ध्यान ऋषि इतने बुरे व्यवहार में।।10।
राजा हुए क्रोधित बहुत बोले बड़े ही रोष में,
सूली चढ़ाने को कहा है तब बहुत आक्रोश में।
सूली चढ़ाकर वृक्ष से सारे सिपाही चल दिए,
ऋषि के तपोबल से मगर फिर प्राण दीपक जल दिए।।11।
वहिं पास के इक गाँव में नारी सुनी थी धार्मिक,
लेकिन वहीं उसके पति की ही दशा थी मार्मिक।
जिसका सुमति था नाम अरु विकलांग पति जिसका हुआ,
ले शीश पति को लांध जिसका हर जगह चलना हुआ।।12।
सिर टोकरी को लांध कर इक रात वह पति को लिए,
उस वृक्ष से गुजरी जहाँ ऋषि थे तभी लटके हुए।
तन से अँधेरे में ऋषी के टोकरी टकरा गयी,
तब क्रोध में जिह्वा ऋषी से बात ये कहला गयी।।13।
रे मुर्ख! मैं घायल यहाँ था घाव तूने फिर दिए,
ले शाप मेरा भोर होते प्राण तेरे ना जिए।
हे प्रभु! हमें करदें क्षमा ऋषि से सुमति बोली तभी,
पति का मिरे है दोष ना, हुई भूलवश गलती अभी।।14।
मांडव्य ऋषि माने न जब, वापस सुमति तब आ गयी,
कहता तभी पति हे प्रिये! अब मौत सम्मुख छा रही।
बोली सुमति गर भक्ति ये मेरी तनिक भी हो सही,
कल से जगत में इस कभी सूरज उदय होगा नही।।15।
जब सूर्य उस अगले सवेरे ना उगा आकाश में,
पहुँचे सभी ब्रह्मा शरण धरती हुई जब त्रास में।
"जब पतिव्रता इस भक्तिनी को दूसरी समझायगी,
तब ही सुमति मानेगि अरु धरती तभी तर पायगी"।।16।
ब्रह्मा कहे अनुसूइया के पास अब जाओ सभी,
जाके सभी अनुसूइया से प्रार्थना करते तभी।
अनुसूइया बोलीं सुमति से तोड़ दो निज प्रण अभी,
मेरा वचन तेरा पती फिरसे जिये इस क्षण अभी।।17।
तब मान कर इस बात को त्यागा सुमति ने प्रण जभी,
पूरे जगत को है मिला निस्तार तम से ही तभी।
अनुसूइया ने जो कहा उसको तभी पूरा किया,
तब शक्ति से उनकी सुमति का पति पुनः जीवित हुआ।।18।
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*अनुसूइया द्वारा त्रिदेवों को पुत्र रूप में प्राप्त करना*
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अनुसूइया तब इस कथा से थीं बहुत प्रचलित हुईं,
लेकिन वहीँ ये बात सुनकर देवियाँ विस्मित हुईं।
तब देवियाँ तीनों इसे संदेहवश कहने लगीं,
"इक आम नारी किस तरह से देवि सी बनने लगी"।।19।
अनुसूइया वा अत्रि के इक चाह थी मन में तभी,
की देव तीनों पुत्र बनके जन्म लें घर में कभी।
ऋषि अत्रि तीनों देव से तब प्रार्थना करने गए,
अनुसूइया को तब परखने देव तीनों थे गए।।20।
बनके तपस्वी देव तीनों बोलते हैं मात से,
हम भोग ये तब ही करेंगे दो खिला जब हाथ से।
अनुसूइया निज धर्म को कैसे करेंगी पार अब,
यह सोचकर माँ ने किया ऋषि अत्रि का फिर ध्यान तब।।21।
होता उन्हें है ज्ञात ये अपने तपोबल से तभी,
लेने परीक्षा देव तीनों वेश धर आये अभी।
अनुसूइया ने हाँथ में ले नीर बोला हे प्रभू!
बदलें इसी क्षण बालकों के रूप में तीनों प्रभू।।22।
अनुसूइया ने निज तपोबल से उन्हें बालक किया,
त्री देव को निज हाथ से तब सब विधी भोजन दिया।
रक्षा हुई इस भाँति माता के पतिव्रत धर्म की,
वा पूर्ति भी की मात ने आतिथ्य के निज कर्म की।।23।
यूँ बालकों सा देख तीनो देवियाँ विचलित हुयीं,
अनुसूइया से आग्रह को आश्रम उनके गयीं।
अनुसूइया ने देवियों को देव तब वापस किये,
जो रूप था पहले उन्हें वे रूप सब वापस दिये।।24।
अनुसूइया पर हो मुदित त्री देव ने ये वर दिया,
वर पूर्ण करने जन्म तब था मात के ही घर लिया।
ब्रम्हा बने हैं सोम अरु दत्तात्रे विष्णू हुए,
अरु तीसरा तब पुत्र बन शिव रूप दुर्वासा लिए।।25।
तीनों अलग थे अरु सभी हर लोक में विख्यात थे,
बहु प्रेम करते थे सभी अपने पिता और मात से
अब वो घड़ी थी आ गयी सतयुग जभी ढल जायगा,
त्रेता बनेगा युग नया श्रीराम को जग पाएगा।।26।
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*त्रेता युग में अनुसूइया के आश्रम में सियाराम का आगमन*
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रघुनाथ जब पहुँचे कभी अनुसूइया के धाम को
ऋषि अत्रि ने स्वागत किया हर्षित किया श्री राम को।
अनुसूइया बोलीं प्रभू से धन्य ये जीवन हुआ
पग धूल से ही जान पड़ता सब यहाँ पावन हुआ।।27।
बोलीं सिया अनुसूइया से मात मैंने ये सुना
मंदाकिनी को इस जगह पर आपने है ला दिया
करके कृपा मुझ पर बहुत अब वो कथा बतलाइये
सुनकर जिसे मन शांत हो ऐसी कथा समझाइये।।28।
है इक समय की बात ये था इस जगह सूखा पड़ा,
सारे मवेशी मर रहे मन प्यास से व्याकुल बड़ा।
ऋषि अत्रि ने की प्रार्थना लेकिन न माने इंद्र जब,
मैं सुरसरी से प्रार्थना को आ गयी आगे थी तब।।29।
मेरी तपस्या से हुईं जब मात अति खुश जान्हवी,
गंगा हुईं हैं अवतरित तब नाम लें मंदाकिनी"।
अनुसूइया से ये कथा सुनकर के तब बोलीं सिया,
"पावन कथा सुन ये ह्रदय मेरा बहुत हर्षित हुआ।।30।
अब मात हमको आज्ञा देदें यहाँ प्रस्थान की,
अब यात्रा करनी हमें है नित नए स्थान की"।
सीता लखन अरु राम जब प्रस्थान की अनुमति लिये,
उपहार तब अनुसूइया ने सीय को अनुपम दिये।।31।
पावन वसन, आभूषणों को था लिया उन मात से,
दूषित हुए जो ना वसन कभि धूल के आघात से।
फेंका इन्हे आकाश से सीता हरण के काल जब,
आभूषणों को देख ही सीता सुधी चल पायी तब।।32।
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*द्वापर युग में अत्रि का महाभारत युद्ध में योगदान*
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उस काल जब भ्राता सभी थे आ खड़े मैदान में,
उस युद्ध में कोई रुका न अस्त्र के संधान में।
वो काल जब गुरु द्रोण को बोली गयी ये बात थी,
की पुत्र उनका मर गया है पार्थ के तब हाथ ही।।33।
गुरु द्रोण तब संधान को किसी अस्त्र के थे ना रुके,
कितने तभी उस क्रोध कारण काल को थे जा चुके।
ऋषि अत्रि वा गौतम चले तब उस महा मैदान को,
तब द्रोण को धीरज दिया रोका नए संधान को।।34।
अनुसूइया वा अत्रि के सब काज तब पूरित हुए,
दोनों तभी सब पूर्ण करके ब्रह्म के सम्मुख गए।
ब्रह्मा कहे जाकर विराजो लोक में नक्षत्र बन ,
फिर हुए ऋषि अत्रि ये जिनसे चमकता है गगन।।35।