मेरे गुण गागाकर वध करो
मेरा वध करो; मुझे रद्द करो|
यों हकलाकर हो कैसी उलझन से जूझ रहे
क्यों न मेरे शून्य अपने दस हो तुम ढूंढ रहे?
लो शून्य चक्र छीन ये मेरा, स्वशून्यता में मुझे आबद्ध करो||
मेरे गुण गा गाकर वध करो, मेरा वध करो; मुझे रद्द करो|
मुझसे मुक्ति की इस प्राचीन अभिलाषा में
कदाचित मुझपर ग्रहण करने की आशा में
कहो, क्या अविनाशी-नश्वर में अंतर तुम्हें स्मरण नहीं?
जानो, की ऐसी द्रव्य मृत्यु से मेरे स्वत्व का मरण नहीं|
हाँ, मुक्त होकर मुझसे; मेरे मोक्ष का तुम साधन बनो,
मेरे अमर प्रचार का फिर, अनजाने ही तुम वाहन बनो||
माना कि अथाह कोहरा जब छा जाता है,
सबसे पहले जल खुदको अंधा पाता है|
अटल शुद्धता को मलिन करके कैसे धुंध फले-फूलेगा?
पारदर्शिता के प्रतीक को प्यासा जगत ये कैसे भूलेगा?
अपनी स्वर्णिम अधीनता का प्रमाण तुम यों प्राप्त करो
जिसकी बूँद को कंठ तरस रहे, उसी को तुम समाप्त करो ||
में हूँ ही क्यों, मेरा अर्थ है क्या?
यह प्रश्न स्वतंत्र समर्थ है क्या?
इस संदेह का मैं ही विषय भी, प्रेरणा भी हूँ
लो हूँ अपनी औषधि, अपनी वेदना भी हूँ|
मेरी सम्भवता में ही मेरे अस्तित्व का तर्क भान करो
देखो कि मेरा मान है, इसी कारण तुम सम्मान करो||
न अनंतविजय-मणिपुष्पक-सुघोष का गूंजन होता
ना ही रण में गांडीव-वृकोदर का कभी गर्जन होता|
बिन उन आचार्य के जिनसे पांडव-कौशल थे अमित हुए
बिन उन धर्मबद्ध-महान के जो धर्मराज से थे भ्रमित हुए
विमूढ़-ढृढ़ता में अपनी कैसे तुम अजय दिखोगे?
बिन द्रोण कहो तुम कैसे ही ये विजय लिखोगे?
चर्चा करके मेरी ही कैसे मुझे तुम व्यर्थ बताओगे?
अग्र दिशा में सीमित चिंतन से कैसे यह जान पाओगे?
श्वासों से चलित ये जीवन है, जीवन है तभी ये श्वासें हैं
असत्यों से उफन यों द्रोह रहा, द्रोह है तभी तो झांसे हैं|
इस लम्बी होती नाक से मुझे जितना भी प्रश्वास करो
अपनी प्रशंसा में मेरे प्रतिरूप का तुम आभास करो||
यदि अपनी सुइयों से विपरीत वो पाए
कल शायद काल-चक्र भी उग्र हो जाए
यदि मेरा वश नहीं है उस समय पर है जो आने वाला
बताओ,समय भी कौन है मेरी अमावस लाने वाला?
लो मैंने तप में रक्त बहाकर हर क्षण को है अब लाल सना
त्रिनेत्र खुले; मैं ही महादेव, मुझसे ही अविरल त्रिकाल बना||
तो तांडव हमारा पुनः प्रारम्भ हुआ
मानो ब्रह्माण्ड का ही पुनारम्भ हुआ
और कई थे जागे जब हम मजबूरन सोते रहे
हमसे जन्मी आकाशगंगा में अपने हस्त धोते रहे
पर स्रोत-मुक्त चाहे कितनी वो गंगा घूम ले सारा संसार
अटल प्रवृत्ति है उसकी; आएगी लौटकर हमारे ही द्वार||