(मयखाने की महफ़िल में दो अज़ीज़ दोस्त बैठे हुए हैं )
समर : कैसे हो अविनाश, आज यहां शौक़ीन लोगों के बीच कैसे आना हुआ?
अविनाश : अरे भाई, मैं तो पतंग जैसा हूँ, जिधर हवा ले जाती है वहीं निकल पड़ता हूँ। तुम्हारी याद आयी तो सोचा तुम यहाँ के अलावा कहाँ मिलोगे, तो बस यहाँ चला आया।
समर : बस अब यही किस्मत है मेरी, तुम जैसों तक को मेरी याद आ जाती है, तो उसको….छोड़ो।
अविनाश : क्या? क्या बोले?
समर : छोड़ो इसे। दुखी दिल है ,कुछ भी बोलता है। पहले ये जाम उठाओ। अब ये सुनो , " तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर...... तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर.........अरे इरशाद तो कहो। "
अविनाश : हाँ, इरशाद। क्या बात!, क्या बात!...... तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर......
समर : हो नहीं सकता….. तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता....
अविनाश : ख़ूब!!
समर : "तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता, वो पत्थर हो नहीं सकता ये शीशा हो नहीं सकता"
अविनाश : अरे मूर्ख मानस!!!! कम से कम शेर तो सही बोलो , दाग का कलाम हैं "तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता, वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता"
समर : अरे वही वही। क्या फ़र्क़ पड़ता है थोड़ा ऊपर नीचे होने से....
अविनाश : सही है भाई....... लग रहा है तुम्हारे लिवर और दिमाग की सूरत अब एक ही है।
समर : मसखरे हो गए हो।
अविनाश : ये देख यहाँ मुझे बशीर बद्र सा'ब का एक शेर याद आता है...“कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता”
समर : लाजवाब शेर। देखा, हम तीनो की बात और हालात एक ही हैं।
अविनाश : नहीं मेरे दोस्त, तुम तीनों की बात एक नहीं है। ऐसे देखो, हम दोनों के हाथ में जाम है। दोनों का काम एक ही है...मंज़र हसीं करना, लेकिन यहाँ दोनों एक तो नहीं। तुम्हें ये पसंद आता है और मुझको वो।
समर :अरे दोस्त, मुझपे ही जाम का सुरूर है या तुम बिना पिये ही बहक रहे हो...... कहना क्या चाहते हो ?
अविनाश : देखो ,जब दाग कहते हैं-"तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता, वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता" और बद्र साहब कहते हैं "कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता”, दोनों ही अपने नाकाम रिश्तों की, मोहब्बत की कहानी बयान कर रहे हैं मगर 'नज़रिया' दोनों का अलग अलग है। दाग़ का शेर पढ़ के तुरंत एक तस्वीर नज़र आती हैं, उस तस्वीर में हमें दाग़ सही और उनकी महबूब ग़लत नज़र आती हैं। मुमकिन है कि उनकी महबूब वैसी ना हो, पर उनके कलम ने जो तस्वीर बनायी यहाँ, उससे ये ही ज़ाहिर होता है। और हम भी इसी तस्वीर को ढोते हुए आज तक बढ़ रहे हैं और सही ही होगा अगर कहूँ कि बढ़ते ही चलेंगे।
समर : बात सही है ...... दाग़ को भी शिकायत बहुत रही होगी अपने महबूब से, जैसे मुझे है।
अविनाश : बात इतनी भी सीधी और सतही नहीं है..... उनके शेर से एक और कड़ी जुड़ती हैं, उनकी ज़िंदगानी पढ़ने और जानने पर खबर होती है कि कितना पाक और कोमल था उनका इश्क़, मुकम्मल मगर ना हुआ था।
समर : लेकिन तुम वो अलग नज़रिये वाली क्या बात कर रहे थे ?
अविनाश : अरे वही!! इस शेर में तुमने देखा की कैसे दाग साहब अपने साफ़ , कोमल लेकिन नाकाम इश्क़ की कहानी कितनी आसानी से कह गए जिसमे उनकी माशूका कहीं न कहीं, हमें गलत नज़र आती है। वहीं बद्र साहब के शेर पे ध्यान दिया जाए तो वो कहते हैं-"कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता ” इस शेर में भी अपने मेहबूब की तरफ एक शिकायत जाहिर हो रही है लेकिन उसी शिकायत को एक मासूम और नाज़ुक चेहरा देते हैं बशीर साहब। गौर करें तो उनकी भी शिकायत वही है, इकलौता फ़र्क़ है उनके लहज़े में। दाग़ की शायरी में जहां एहसास होता है कि वो उस भरी महफ़िल में उँगली दिखा कर किसी को रुसवा करने को ये शेर बोल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर बद्र ख़ुशमिज़ाजी से, इस शिकायत को अर्ज़ करते हैं, जैसे वे मुस्कुराते हुए बागों की तितलियों से अपनी महबूब की शिकायत कह रहे हों। दोनों को अपनी महबूब अज़ीज़ हैं मगर महज़ लहजे के फेर से दो बिलकुल अलग, बहुत अलग तस्वीर ज़ाहिर होती हैं। बस यही "नज़रिये का फेर" है, कहने का मकसद एक ही है लेकिन लहज़ा, दिशा और कहने के अंदाज़ से पूरी तस्वीर तक बदल जाती हैं।
समर : बहुत बारीक़ बात बताये हो यार.....ऐसा लग रहा है दो अलग अलग शेरों को देखने का एक नजरिया मिला है। यही बारीकी खूबसूरत है। किन भावों को किस मिज़ाज में व्यक्त किया जाए , ये महीन फ़र्क़ आज पता चला। ये अंतर बेहद खूबसूरत है। बहुत उम्दा।