लाश हिन्दू या मुसलमान नहीं होती
लाश, स्त्री की कमतर या पुरुष की महान नहीं होती
बहुत बरस हुए विद्रोही की एक कविता पढ़ी थी मैंने
पहली बार मन में, एक औरत की जली हुई लाश गढ़ी थी मैंने|
कल शाम माँ का फ़ोन आया था
कह रही थी अखबार में खबर है
जली हुई औरत की लाश के साथ
जल उठा मेरा पुराना शहर है
फ़ोन रखते हुए माँ ने कहा था ख्याल रखना,
मां ने ठीक यही तब भी कहा था,
जब दिल्ली में फ्लाईओवर से फेंक दी गई थी एक लड़की
जो फिर मार दी गई, पर आज - तलक मर नहीं पाई)
कह देना कितना आसान था माँ के लिए
सुन लेना कितना आसान था मेरे लिए
लेकिन मां की बात मैंने बिल्कुल वैसे ही सुनी
जैसे ये कोई बात ही ना हो
जैसे ये रोज़मर्रा की कोई बात हो।
उस फ़ोन कॉल को चार दिन बीत गए हैं
आज फिर अखबार का पहला पन्ना
एक औरत की जली हुई लाश है
ये भी लिखा है कि मोहल्ला मुसलमान है
ये नहीं लिखा कि मुल्क का नाम हिंदुस्तान है
ये नहीं लिखा....
और हिन्दुस्तान ने औरतों की लाशों से
पटी हुई सड़क पर दौड़ना सीख लिया है।
मेरी टाइमलाइन पर आंसू हैं, दुःख है, संवेदना है
गुस्सा है और संविधान की खूब अवहेलना है
मेरे पड़ोस में तो मगर कुछ नहीं बदला,
कोचिंग जाती हुई कल्लू पासी की लड़की
आज भी अपना सर नहीं उठाएगी
और चौराहे पर खड़ी ठकुराई, आज फिर उसे नोंच खायेगी
मैंने भी बैग में बिलकुल रोज़ की तरह रखा है पेप्पर-स्प्रे
देश बदलने के दौर में भी, मेरे ज़ेहन में कुछ नहीं बदला
काबिल-ए-तारीफ़ है कि संसद भी मुझे पहले जैसी लगी
और अदालत में भी ख़ास कुछ नहीं बदला|
उस बात को भी अब चार दिन बीत गए हैं
ख़बरों में अब लाश की गंध नहीं है
लगता है, हमारी सभ्यता का ये अंत नहीं है
मुझे फिर याद आयी hai वही पुरानी कविता
मुझे बारहा याद आता है वो कवि
जो लाशों के ढेर पर खड़े होकर
गीत पढ़ता था, और ललकारता था हुक्मरानों को
फिर किसी अज्ञात गोली के लगने से मर गया एक रोज़)
उसके कातिल का अब भी कुछ पता नहीं है
उसके मर जाने से भी मौतों का सिलसिला रुका नहीं है
कि औरत की जली हुई लाश के साथ
इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां भी
अखबार में छप जातीं तो
इस सभ्यता को ख़त्म माना जा सकता था|
पर अब फिर खबर है, और अब फिर नई खबर आयी है
कि ठीक औरत की लाश मिलने की जगह पर
भून दिए गए हैं चार मुल्ज़िम
और ये इस बात की तस्दीक है
कि उस जगह पर_ठीक उसी सड़क के मुहाने पर
एक हमारी पूरी सभ्यता ने अपना दम तोड़ दिया है|
अखबारों ने इस बार औरत की लाश को मुल्ज़िमों के साथ छापा है
ठीक बगल में...
मैं सोलह पन्नों तक ढूंढती रही
सभ्यता की क्षत-विक्षत लाश
जो कि मुझे उस पन्ने पर मिली
जहां 'माननीय' प्रधानमन्त्री ने
कल शाही भोज का आयोजन किया था|
कल रात भारतीय सभ्यता मेरे सपने में एक स्त्री की तरह आयी
कि जिसकी गोद में मरा हुआ न्यायतंत्र था
जिसके पैरों में पड़ी हुई थी
एक औरत की जली हुई लाश
और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां|