रोहन: पिताश्री, संध्याकाल ने दस्तक दे दी है, आइये चाय और पार्ले जी का भोग लगाकर इस पहर का रसपान करें।
पिता: लगता है रामायण और महाभारत कुछ ज़्यादा ही तुम्हारे सिर चढ़ गए हैं। अन्यथा आदर और विनम्रता का भाव तो कब का पांडेय खानदान से बोरिया बिस्तर बाँधकर त्रेता युग की तरफ कूच कर चुके थे।
रोहन: अब दिन में चार घंटे इन्ही सब वचन वाचन से घर की दीवारें गूंजती रहती हैं। स्वाभाविक है कि कुछ लक्षण मेरे भीतर भी अंकुरित हों।
पिता: इतने ही भावों से ओत-प्रोत हो चुके हो तो सुबह आरती में साथ बैठ जाया करो, कमरे में जो शोर शराबा मचाते हो, उससे तो अच्छा ही है। भगवान जाने कॉलेज जाके कौन सी आदतें पाल रखी हैं।
रोहन: डैड...उसे रॉक म्यूजिक कहते हैं, उसे छोड़के अब मैं घंटी तो नही बजाने वाला। वैसे ग़ालिब का नाम सुना है आपने? हाँ, सुना ही होगा। एक शेर है उनका
"जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती "
धार्मिक रिवाजों या तहज़ीब से जो आशीर्वाद मिलता हैं, बड़ों से या खुद ईश्वर से, वो ग़ालिब को मालूम हैं। उन्हें दुनिया के तौर तरीक़ों का पूरा इल्म है मगर कुछ उनकी अपनी शर्तें हैं, जो उन्हें यह दुआ और तहज़ीब के चौखाने से बाहर निकालती हैं। हर फ़नकार का अपना सेल्फ़ कमिट्मेंट होता हैं, ग़ालिब का कुछ यूँ था। स्थापित और तय नियमों और रिवाजों पे सवाल और ग़ौर करना ही इंसान को बढ़ाकर फ़नकार बना देता। बस कुछ यूँ मेरा भी है।
पिता : माई डियर लैड, अब जो तुमने ग़ालिब को याद कर ही लिया है तो इस शेर से तो वाकिफ़ होगे ही,
"न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता"
तुम्हारे ग़ालिब साहब ही चिंतन में लीन हो कह रहे कि आदि से अंत तक जब अस्तित्व खुद अपनी तलाश में था तब केवल उस ईश्वर का साया रहा होगा। आगे बढ़ के कहते हैं कि एक आदमी जिसके महज़ होने भर से ही उसका अस्तित्व सवालों के घेरे में है, ऐसे कृति की उस अनादि के सामने क्या बिसात। फनकारों की शायद यही ख़ासियत है, एक सांचे में वो नहीं ढलते, और विचारों को शीतल जल के माफ़िक बहने देते हैं। भले ही नज़र का फेर ही उसमें क्यों न झलके।
(रोहन भौचक्का था, बाप बाप होता है यही सोचकर अपने हिस्से की दो पार्ले जी उठाई और कमरे की तरफ़ चलता बना)