अभी से ठीक एक घंटे बाद मेरी फांसी का समय तय है। अभी से ठीक एक घंटे बाद एक और यासीम मुहम्मद फाँसी के तख्ते पर अपना दम तोड़ देगा। (हँसते हुए) मौलाना साहब कहते थे "दिन में पॉंच वक़्त की नमाज पढोगे तो खुदा तुम्हे जन्नत बख्शेगा"। पर मौलाना जी ये भूल गए की दुआएँ केवल अच्छे लोगो की कुबूल होती है। मैं एक बार मर कर देख चुका हूँ, पर न तो मुझे हूरें नसीब हुई न ही वो दास्तानों में बयां की जाने वाली जन्नत। मैं तो सिर्फ एक नौकर था, वो भी महज आठ साल का। जायदाद के चक्कर में मालिक के बेटे ने उसका खून कर दिया और सारा इल्ज़ाम आ गया मेरे सर पर, आखिर गरीब आदमी की कौन सी कोई हस्ती होती है, वो तो महज प्यादे होते है जो बादशाहत को कायम करने के लिए कुर्बान कर दिए जाते है। बस कानून को एक बहाना मिल गया और मुझे १४ साल की कैद। जेल में एक पंडित जी मिले तो उन्होंने कहा "१४ साल वनवास तो श्री राम भी गए थे"। फरक इतना है की उनकी वापसी का स्वागत दीवाली के नाम में मनाया जाता है मगर मेरी वापसी का स्वागत था मेरा क़त्ल, वो भी मेरे ही बाप के हाथों । मुझे घर से निकलते वक़्त मौलाना साहब ने कहा था की आदमी तो जेल से निकल जाता है पर जेल आदमी से नहीं निकलती । बस वही थी मेरी मौत ।
मेरे दोस्त तो पहले ही अस्तित्वहीन थे अब परिवार का भी कोई वजूद न रहा। एक बार तो सोचा क्यों न अपनी ही कब्र खोद कर लेट जाऊं, पर दुसरे ही पल ख्याल आया की अगर कैदी बन ही चूका हूँ तो क्यों न कैदखाने को ही घर मान लिया जाये। बाहर गया एक खूबसूरत लड़की ढूंढी और बलात्कार कर दिया। फिर से एक उम्र कैद और बस तभी से ये कैदखानों, कमरों और जेलरों की बदली का सिलसिला शुरू हो गया अब जहाँ तक याद्दाश्त जाती है मेरी उम्र कुछ ४५ बरस के आस -पास होगी।
शौक कुछ है नहीं न ही आगे का ठिकाना, पर इन बरसो में ये जरूर सीख गया की मौलाना साहब के अल्लाहताला का भी कोई वजूद नहीं है। लोग तो बस फ़र्ज़ी में ये पाँच वक़्त की नमाज, जुमा की नमाज, रमजान की नमाज वगैरह में याद करते रहते है । और अगर अल्लाह मौजूद है भी तो भी उसे कोई फरक नहीं पड़ता कि उसके बन्दे किस हाल में है, बल्कि अल्लाह को क्या, किसी को भी फरक नहीं पड़ता कि उसके साथ वाले कमरे में रहने वाला जिन्दा है भी की नहीं ।
अब कल होना क्या है? मेरा कमरा साफ़ कर दिया जायेगा किसी दूसरे कैदी के लिए, जो अपने आखरी दिन गिन रहा हो । शायद एक और यासीम मोहम्मद ?
हम सब अपनी जिंदगी पैसे, औरत, घर, परिवार के पीछे भागते हुए लगा देते है। आसान शब्दो में कहा जाये तो हमारा अस्तित्व दूसरों के लिए होता है ,पर मेरे जैसे का क्या जिसका कोई दूसरा है ही नहीं। जब मुझे आत्मबोध हो चूका है की मेरी कोई अहमियत ही नहीं है (और न ही मुझे कोई अहमियत की जरूरत है) तो मेरे कमजोर, बीमार या मृत होने की भी कोई अहमियत नहीं । जब मेरी खुदी जागी तो उसके बाद मुझे अपने भीतर की कमजोरियों से डर लगाना ही बंद हो गया और अब में सही मायने में आज़ाद हूँ। किसी की जिंदगी का कोई बड़ा मकसद या खुदा का तय किया कोई नसीब है ही नहीं । हम तो बस एक छोटी से नाव है जिसे बिना दिशा दिए एक ऐसे अंतहीन अथाह समंदर में बस छोड दिया गया है जिसका कोई किनारा है ही नहीं। जब में पहली बार जेल आया था तब मैं केवल एक छोटा सा बच्चा था जिसकी आँखों में सपने, उमंगें, आशाएं और वो तमाम बेफिजूल की चीजे थी जो किसी भी बच्चे की आँखों में होती है मुझे लगता था की अम्मीजान मुझे जेल की पत्तर जैसी रोटियाँ तो नहीं खाने देंगी, वो रोज सुबह मेरे लिए नरम-नरम रोटियां लाएंगी।
और क्या मालूम किसी रोज़ मेरी पसंदीदा लौकी की सब्ज़ी भी बनाकर भेज दें। बस इसी आस में मैं ३ दिन भूखा रहा। २ महीने तक इंतज़ार भी किया। पर ना तो अम्मी आयी, और ना ही रोटियाँ । मेरे वालिद मियाँ जिन्हे मै आजकल प्यार से मौलाना साहब कहता हूँ, अपनी इज़्ज़त को अपने बेटे से ज़्यादा कीमती मानते थे। मतलब दूसरों की कहने की बातें उस दिन उन्हें खुदके खून, अपने बेटे से ज़्यादा ज़रूरी लगी। पर मैंने उम्मीद नहीं खोयी। मैं लगा रहा, अल्लाह को अपनी बेगुनाही का रोना रोने में। नमाज़ ५ बार से बढ़ाकर ७ बार कर दी। कैदियों की जेल में एक पाक और नेक इंसान बनने को अपना मकसद बना लिया। गिरता संभालता, पर कभी उम्मीद नहीं छोड़ता। जेलर हो या कैदी, सबके साथ अदब और इज़्ज़त से बात करता। मेरे लिए तो हर कैदी बस एक आदमी था जो किसी न किसी की गुनाहों की सज़ा भुगत रहा था। अब सोचकर देखता हूँ तो हँसी आती है की इतना नादान कैसे हो सकता हूँ।मुसलमान की लिए तम्बाकू, शराब सब हराम की चीज़ें होती हैं और इनसे दूर रहना अल्लाह की बन्दे का फ़र्ज़ होता है। पर जब अल्लाह नहीं है तो आखिर फ़र्ज़ के भी क्या मायने। और अगर फ़र्ज़ के कोई मायने नहीं हैं तो गुनाह का भी कुछ मतलब नहीं बनता। और अगर गुनाह का कोई मतलब नहीं बनता तो गुनहगार भी कोई नहीं होता। और अगर कोई गुनहगार नहीं है तो उसको किसी से डरने की क्या ज़रुरत। अब थोड़ी देर में जेलर आएगा और मुझसे पूछेगा की मेरी कोई आखिरी इच्छा है क्या ? अब जिस मुर्दे के कोई अरमान ही नहीं तो वो आखिरी इच्छा क्या बताएगा? बल्कि एक मुर्दे को फ़ाँसी पर चढाने की बात सुनकर भी हँसी आने लगती है। सोचता हूँ की आखिर उसके इस सवाल का जवाब क्या दूँ? मेरे पास माँगने की की लिए कुछ है नहीं। अपने लिए कुछ चाहिए नहीं और न ही कोई है जिसके लिए मांग सकूं। सोचता हूँ की बस इतना करे की मेरे यह जो भी आखिरी शांब हैं उनको किसी खँडहरनुमा जेल की आदम ज़माने की नोटिस बोर्ड पर लगा दे। हो सकता है की इसको पढ़कर किसी और को भी अपनी बेबसी और खुदी का अंदाजा हो और वो भी इस जहां की कमजोरियों से सही मायने में आज़ाद हो जाए।