“क्या देखते हो? 'कोई रहता है आसमान में क्या'?”,विकल्प ने चुटकी लेते हुए कहा।
(स्वरूप संजीदगी से उसकी ओर मुड़ा और मुस्कुराया। उसके हाथ में अख़बार था।)
स्वरूप - हम जब तक मज़दूरों को एक जमात समझते रहेंगे, कुछ नहीं बदल सकेगा! इन्हें जमात से आगे...इंसान समझा जाना बहुत ज़रूरी है अब।
विकल्प - अच्छा कामगीरों की दुर्दशा पर व्यथित हो। हाँ, मुश्किलात तो हैं ही। सुनके बुरा लगता है।
स्वरूप - यही...! यही तो नहीं चाहिए। यही तो सारी मुसीबत की जड़ है। मज़दूर शब्द सुनते ही चारों ओर से हमदर्दी आने लगती है। बस हमदर्दी। न कोई मुआवज़े की सोचता है, न उसके परिवार की, न उसके गुजर-बसर की। बस कोरी हमदर्दी है। कितनी हक़ीक़त कहते हैं मुनव्वर राणा - ‘हमारे साथ चलकर देख लें यह भी चमन वाले, यहाँ अब कोयला चुनते हैं फूलों से बदन वाले’ - क्यूँकि उनकी दुर्दशा महज़ एक उपमा बनकर रह गयी है, जिसको हमदर्दी से ज़्यादा कभी कुछ हासिल नहीं होता। पहले लगता था कोई भला ऐसी बेबुनियाद बात क्यूँ कहेगा पर अब समझ आता है कि क्या लिखा और क्यों लिखा।
विकल्प - इससे ज़्यादा राणा यहाँ उनकी पाबंदियों और ज़िल्लत की बात करते हैं जिसका औचित्य उनके "मजबूरी" के नाम पर साबित कर दिया जाता है। ये हमारे वक़्त के वो फूल हैं जिसकी महक हर किसी को पसंद तो आती है पर इन्हें सींचने के लिये मुट्ठी भर हाथ भी नहीं उठते। तुम ही देखो न! इनका हक़ छीन लिया जाता है, अधिकार कुचल दिए जाते हैं और इसके बाद भी कुछ अगर बचता है तो वो हमें उनके लिए 'बहुत' लगता है। बड़ा हास्यास्पद है, पगार हो य उनकी आज़ादी, मालिक की नज़र में वो हमेशा ‘ज़रूरत से ज़्यादा’ ही रहता है। ये लोग, जिन्हें चंद पैसों के लिए वक़्त और इंसान दोनों की ही मार सहनी पड़ती है, राणा की कलम इन्हें थोड़ी राहत ज़रूर दे गयी है... 'फूलों से बदन वाले'।
स्वरूप - हाँ…और शायद इसी बदहवासी और ज़िल्लत को क़रीब से महसूस कराने के लिए अकबर इलाहबादी कहते हैं - ‘नौकरों पर जो गुजरती है मुझे मालूम है, बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिए’। ये शेर एक उम्मीद की सूरत है जिसमें नौकर भी ये बताने की कूबत रखते हो कि उनकी समाज़ में हैसियत और अहमियत क्या है! जो समझ चुके हों कि अन्याय को दुर्भाग्य की संज्ञा देते रहना कितना बड़ा गुनाह है। जिसके भुजबल पर समाज की नींव टिकती हो, उसे निरीह कैसे देखा जा सकता है?! इलाहबादी का शेर इस उम्मीद की ज़मानत देती है।