कल यूं हीं छत पर गया था।
और कोशिश की थी
ढूंढने की, वो मिट्टी का घरौंदा।
जो दीवाली पर मेरी बहन ने बनाया था।
जिसके लिए चुनकर लाया था
कुछ आधी ईंट के टुकड़े।
और पड़ोस की खेत से मिट्टी।
बीन कर सारे कंकड़ निकाले थे।
फिर गीली मिट्टी से इंटे जोड़कर,
बहन ने खड़ा किया था घरौंदा।
अठन्नी का चूना लाकर रंगी थी दीवारें।
और मां ने उसमें रख दिए थे मिट्टी के
लक्ष्मी गणेश।
साथ में खील बताशे, जो,
दीवाली की अगली सुबह खाने थे।।
वो घरौंदा नहीं मिला।
ना हीं मिले खील बताशे।
मेरी छत बदल गई है।।
कल यूं हीं छत पर गया था।
और कोशिश की थी
ढूंढने की, अपनी पतंग और मांझा।
जो रुपए के चार खरीद कर लाया था।
रुपए जो चवन्नी चवन्नी जमां करके जोड़े थे।
चवन्नी, जो मां कभी आटा चक्की से
गेहूं पिसा लाने पर इनाम में देती थी।
या सब्ज़ी का दाम कम कराने का मेहनताना समझकर ख़ुद रख लेता था।
वो मांझा नहीं मिला,
ना हीं मिली पतंग।
मेरी छत बदल गई है।।
कल यूं हीं छत पर गया था।
और कोशिश की थी।
ढूंढने की अपना बचपन।
मिले कुछ टूटे ईंट पत्थर के टुकड़े।
यहां वहां उगी घास और झाड़।
और झाड़ में उलझा कुछ मांझा।
अभी भी धागे से बंधी दो कमानी,
जो मेरे पतंग के अवशेष थे।
बरसात में जमी काई की पपड़ियां।
और उदास शाम पर आंसू बहाती छत।
वो बचपन नहीं मिला।
ना हीं मिली वो छत।
मेरी छत बदल गई है।।
मुंढेर से झांक कर देखा
सारी छतें एक सी है।
सारी छतें बदल गई हैं।।