उस दिन मैं बाकी दिनों के मुकाबले पहले उठने की दौड़ में सूरज को मात दे चुका था। जिन आंखों ने रोज़ की प्रताड़ना देख खुलने की इच्छा ही छोड़ दी थी वे आज नीले आकाश में अरुण काया लिए बादलों को एक नई उमंग से देख रहीं थीं। जिन हाथों ने बचपन से मजदूरी की, मैला ढोया और फिर क्रांति के लिए झंडे उठाए थे वे अब मेरे देखे हुए सुंदर सपनों को कल्पना की दुनिया से खींच कर यथार्थ में ला पटकने का दम भर रहे थे। जल्दी तैयार होकर मैंने अपना छोटा सा गठ्ठर बैलगाड़ी पर लाद दिया। आज बहुत लंबे अरसे बाद फिर अपने कस्बे की ओर जाने का तय किया था।
तेजी से बढ़ती गाड़ी सूरज सिर तक आने तक कहीं ना रुकी। भूख प्यास मेरी गति कम करने की क्षमता नहीं रखते थे। धीरे धीरे दृश्य जाने पहचाने से लगने लगे थे। सालों बाद रास्ते में पड़ने वाले बड़े मंदिर को देखा। जब गांव छोड़ कर आया था तब उस मंदिर में घुसने की अनुमति ना थी | पर अब इस नए युग में मेरे और भगवान की यह दूरी भी उसी तरह समाप्त हो जाने का विश्वास था जिस तरह गांव से समाप्त होने जा रही थी। पर रुकने का समय ना था, पहले घर पहुंचना था। तभी मंदिर के किनारे पीपल के पेड़ के नीचे खड़े एक व्यक्ति ने इशारे से रोका। खद्दर का कुर्ता और पायजामा पहन रखा था। पांव में चमड़े की चप्पल और कंधे पर झोला। बहुत दुबला पतला शरीर और आंखों पर उससे अधिक वज़नदार उसका चश्मा उसके बुद्धिजीवी होने का प्रमाण देते थे।
मैंने गाड़ी रोकी।
"भैय्या, कुसुमपुर को जाना है, आप कच्ची सड़क तक छोड़ देंगे।"
"कच्ची सड़क क्या कुसुमपुर ही छोड़ेंगे, चलो।"
वह मेरे साथ गाड़ी पर बैठ गया और सफर जारी रहा। शांति को तोड़ते हुए मैने कहा,
"क्या काम करते हैं आप?"
"पत्रकार हूं, कुसुमपुर में होने वाले चुनाव के सिलसिले में जाना है।"
"ये तो बहुत अच्छा है। अब कुसुमपुर में बदलाव आएगा। इतने सालों से राजा शिवपाल सिंह के अत्याचार से दबी जनता अब स्वतंत्र हो जाएगी। गुलामी का दौर खत्म।"
पत्रकार कुछ नहीं बोला। किसी गहन विचार में मग्न हो गया। इसे बुद्धिजीवियों की आदत मान कर मैंने भी कुछ नहीं बोला। कच्चा रास्ता प्रारंभ हो गया था। कुछ दूर पर खेत शुरू हो गए थे। बुआई का काम चल रहा था। छोटे छोटे बच्चे भी लगे हुए थे। मै बोला,
"मुझे मेरा बचपन याद आता है। बचपन जो खेलकूद और पढ़ने लिखने में बीतता वो इन्हीं खेतों में साहूकारों को मजदूरी में गुजरा। पर अब नए युग में इन बच्चों को यह काम करना पड़े यह मैं नहीं सहन कर सकता हूं। "
"गाड़ी रोक के इन किसानों से कारण पूछते हैं।"
मैंने गाड़ी रोक दी। पत्रकार ने पूछा,
"किसके खेत हैं ये?"
"ठाकुर बलवंत सिंह के।"
"गांव में आज चुनाव प्रचार और भाषण होगा, नेताजी भी आ रहे, गए नहीं तुम लोग?"
"भैय्या भाषण का हम का करें। पेट उससे तो भरने से रहा। ये सब करना हमारा काम थोड़े है। "
"तो वोट कैसे दोगे?"
"वोट का क्या है भैया। जिसको बोला जाएगा उसको दे देंगे। हमारे बाप कि जागीर तो है नहीं की संजोए।"
"कौन बोलेगा?"
"मालिक बोलेंगे।"
इन लोगों की बेपरवाही देख मैं भोचक्का सा रह गया। कोई बात नहीं, अब इनको कुछ ही दिन में ठाकुर बलवंत सिंह की गुलामी ना करनी पड़ेगी। ठाकुर तो राजा का चहेता था। उसी के दम पर ठाकुर ने सबके खेत हथियाए और फिर सबको अपने पैरों तले कुचलने लगा। पर इनके अंदर भी बदलाव की वो आग जलानी थी तभी कुछ हो सकता था। मैंने काम करते बच्चों को देख किसान से पूछा,
"तुम्हारी औरतें कहां हैं? बच्चों से क्यों काम करवा रहे। इनको स्कूल भेजो।"
"औरतों के तरफ इन लोगों का व्यवहार काफी भद्दा था साहब, खेत भी अब सुरक्षित ना थे। बच्चों को कहां भेजने बोले आप?"
"स्कूल"
"स्कूल क्या होता है?"
"अरे जहां शिक्षा पाई जाती है। पढ़ाई की जाती है।"
"वो तो पंडित श्यामलदास देतें हैं और हमें थोड़ी ना देंगे। ये शिक्षा पढ़ाई ब्राह्मणों का काम है हमारे किस काम की।"
इन लोगों को स्कूल भी नहीं पता यह बहुत दुखद था। भाई ने तो बहुत पहले खत में लिखवाया तो था कि गांव में स्कूल के निर्माण के लिए बहुत धन आया है और पुरानी चक्की की जगह पर बनेगा। कोई बात नहीं, अभी चल के देखता हूं, फिर देखो अपने सामने पूरा करवाऊँगा। नये मंत्री को सबसे पहले यही काम करने कहूँगा। नहीं माना तो वहीं कान पकडूंगा की बेटा तुम हमारी वजह से हो, स्कूल बनाओ वरना गांव वालों के वोट भूल जाओ। पढ़ाई सबसे पहले। शहर जा के पता चलती है पढ़ाई की ताकत।
मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई। पत्रकार बोला,
"ठीक ही कहते हो। और स्कूल बना भी है क्या तुम्हारे गांव में?"
"बन तो जाना चाहिए था पता नहीं पहुँच कर देखते हैं। नहीं बना होगा तो बनवा देंगें। अब तो अपना राज है।"
"सपने बहुत देखते हो, क्रान्तिकारी हो क्या?"
"देखो साहब, सपने देखते ही नहीं है उनको पूरा भी करते हैं।"
"तुम्हारे गांव वालों को समझाते नहीं तुम?"
"अरे भाई गांव में रहता तो खुद समझाने की हालत में ना रहता। कबका छोड़ दिया अब लौटा हूं। सालों पहले राजा शिवपाल सिंह ने अंग्रेज़ो के इशारे पर हमपर ज़ुल्म ढाना शुरू कर दिया। बहुत ज़्यादा लगान वसूलने लगा। हमारी जमीन हमारा हक सब छीन लिया। अंग्रेज़ो से लड़ने गांधीजी के ' भारत छोड़ो आन्दोलन' में भाग लेने के लिए मैंने गांव छोड़ दिया। जेल भी हुई। शरीर टूटा पर आज़ादी और लोकतंत्र के सपनो ने हिम्मत नहीं टूटने दी। और आज वह सपना पूर्ण रूप से संपन्न हो गया। "
आगे की जमीन बंजर पड़ी थी।
"यहां हम लोगों से जबरन अफीम की खेती करवाई जाती थी। नतीजा अब दिख रहा है। पिताजी ने बताया था कि कभी यहां अपना भी छोटा सा खेत था। बाजुओं में दम है फिर से यहां ज़मीन को उपजाऊ बना के ही छोड़ूंगा।"
अब गांव आ ही गया था। जाने पहचाने लोग दिखने लगे। सबने मुझे देख घेर लिया। ज्यादा कुछ बदला तो नहीं था बस जवान बूढ़े हो गए थे और बच्चे जवान हो गए थे। फिर देखा की एक नई चीनी की मिल लग गई है। गांधीजी ने तो चीनी का बहिष्कार करने को कहा था। अंग्रेजो के तलवे चाटने वाले राजा ने बनवा दी लगता है। नई सरकार में यह मिल बन्द करवा दूंगा। गांव के अंतिम छोर पर हमारी बस्ती थी। वहां भी कुछ नहीं बदला था। वैसे ही गंदगी और खराब हालत। वही टीन के छप्पर वाले घर। और वही शराब का ठेका। इतने आंदोलन के बाद भी वैसा। भाई आते ही गले से लग गया। मां ने घर चलने को कहा, पर तभी उस पत्रकार की बात सुनाई दी। छुटकी से पूछ रहा था, " बेटी स्कूल नहीं जाती क्या तुम?"
मैंने भी अपने भाई को लताड़ा," क्यों बे, तूने तो लिखवाया था कि स्कूल बनने वाला है। का हुआ ओका? छुटकी को भेजे नहीं का?"
भाई का सिर झुक गया," स्कूल नहीं बनेगा।"
मैंने ताव में आकर कहा,"कैसे नहीं बनेगा, चल देखते हैं का हुआ!"
भाई बोला," स्कूल के पैसे से तो मिल बन गई है। राजाजी बनाए हैं।"
मेरी नसों में क्रोध उफान मार रहा था," काहे के राजा, कोई राजा वाजा नहीं है अब इधर। हम ही प्रजा हम ही राजा। समझे कि नहीं।"
"कुछ नहीं होगा भैय्या।"
"कैसे नहीं होगा। प्रजातंत्र आ गया है। इनको देखते हो। ये पत्रकार है। हमारे गांव के चुनाव को देखने आएं हैं। इतनी दूर तक खबर है कि कुसुमपुर में राजशाही खतम। चल तुझको दिखाता हूं, देखना अब सब नेता हमारे भले का सोचेंगे। इतना कह मैंने उसे गाड़ी में बैठाया और लोकशाही जिंदाबाद के नारे लगाता चुनाव रैली के मैदान की ओर बढ़ चला। फिर सब बन्द हो गया।
रैली का दृश्य देख, मेरे सपनो के बुलबुले फूट के बिखर गए। जिन नारों के लिए जीवन झोंक दिया, सब खोखले लगने लगे। मंच सजा था, माइक लगे थे। लोकतंत्र का तमाशा तैयार था। उसको संचलित कर रहे थे चुनाव में खड़े राजा शिवपाल सिंह, और अभिनेता थे उनके लिए प्रचार कर रहे जागीरदार और चमचे।