सुनकर सिया स्वभिमान की गाथा ह्रदय में रह गयी,
तब अश्रु जल से पूर्ण आँखें भाव सारे कह गयी।
श्रीराम सम्मुख थे विराजित विष्णु जैसे शेष पे,
महिमा गढ़ी श्रीराम की निज बालकों ने देश में।।
थे पुत्र लव-कुश राम के तब था नहीं संज्ञान में,
सब खो गए तब गीत में थे राम ही बस ध्यान में।
रुख मोड़के उस गान का वीणा तभी ऐसी बजी,
सुनकर रमायण गान को सारी अयोध्या रो पड़ी।।
रावण-मरण सुन मन सभी का ज्यों वहाँ हर्षित हुआ,
आरम्भ लवकुश ने तभी सीता कि गाथा का किया।
वन में सिया ने दी परीक्षा त्याग कर स्वभिमान को,
फिर भी अयोध्या वासियों ने ठेस दी सम्मान को।।
था जो हुआ उसमें नहीं कछु बस चला श्रीराम का,
तजि उस महल को सिय चलीं आशीष ले श्रीराम का।
था वाल्मिकि को ज्ञान पहले से हुआ इस बात में,
पुत्री बनाकर ले गए निज धाम सिय को साथ में।।
लव-कुश जनम लेकर वहीं सीखे मुनी से गान ये,
इतना कहे अरु ये बताया पुत्र हम श्रीराम के।
सुनकर सभी दरबारियों के अश्रु तब थे रुक गए,
राजा धरम का मान रखकर वे वहीं पे रुक गए।।
किस तथ्य से खुदको हमारा पुत्र है तुमने कहा,
बिन तथ्य किस दरबार में कब न्याय है मिलता कहाँ।
जाके बुला लाओ सिया आके वही निज मुख कहे,
तब ही प्रजा मानेगि सच है जो यहाँ तुम कह रहे।।
लव-कुश चले तब मानकर अपने पिता की बात को,
जाके बुला लाये तभी तत्काल अपनी मात को।
सिय को युँ सम्मुख देखकर श्रीराम अति हर्षित हुए,
राजा धरम का मान रखकर मूक लेकिन रह गए।।
सीता चरित पावन महा हूँ मैं कसम खाता स्वयं,
कहता हुँ मैं ये तप भरोसे जो किया जन्मों जनम।
यदि बात में मेरी कहीं भी कोइ भी हुइ भूल हो,
मेरे तपोबल का इसी क्षण नष्ट सारा मूल हो।।
ऋषि वाल्मिकि ने ये कहा दरबार में आक्रोश में,
धरती लगी थी डोलने जब ऋषि हुए अति रोष में।
श्रीराम के मीठे वचन सुन शांत थोड़ा वे हुए,
श्रीराम तब अपनी प्रजा की बात सिय से कह सके।।
विश्वास तुमपे हे सिया! सागर की ही गहराई सा,
लेकिन परीक्षा सामने है चाहती देखन प्रजा।
हे जानकी! तुम इसलिए लो मान मेरी बात को,
देदो परीक्षा और इस क्षण सच प्रजा को ज्ञात हो।।
सुनकर प्रजा की चाह को स्वभिमान सिय का जल उठा,
ऐसे वचन सुनके पुनः इस बार निज मुख चल उठा।
थी बात अब ये आ गयी इक नारि के सम्मान की,
अब और मैं ना सह सकूँ ये कह पड़ीं अब जानकी।।
अब और मैं न सह सकूँ, कब तक यु साबित मैं करूँ
की राम केवल वो पुरुष जिनको सदा निज मन धरूँ।
फिर सीता ने धरती माता का मन से किया आह्वाहन
प्रकट हुईं धरती माता, बैठाया सिय को निज आसन।।
धरती की गोद में बैठकर सीता ने दुनिया त्याग किया
तब क्षमा याचना और रोदन से अयोध्या ने पश्चाताप किया।
नारी एक कोमल फूल है, बन सकती वो त्रिशूल है
सीता ने सबको दिखलाया नारी नहीं चरण धूल है।।
अपमान इस संसार में नारी का जब तक हो रहा
संसार में करुणामयी धरती का दिल भी रो रहा।
इस बार जब धरती फटेगी, सीता न कोई समाएगी
बल्कि ये पूरी दुनिया ही उस गर्त में चली जाएगी।।