बिपिन: मेरा चयन हो गया मौलिक! ईश्वर के अलावा मुझे तो कोई उम्मीद ही नहीं थी।
मौलिक: बहुत बधाई दोस्त! पर चयन तो तुम्हारी मेहनत ने कराया है...हालाँकि मिठाई ईश्वर के हिस्से की ज़रूर खा सकता हूँ मैं!
बिपिन: जैसे मेरे माता-पिता और तुम्हारा अप्रत्यक्ष रूप से योगदान है वैसे ही ईश्वर का भी अपना योगदान है। उसका उचित श्रेय तो उसे मिलना ही चाहिए न!
मौलिक: बस यही तो समस्या है। हम हर चीज का श्रेय किसी अंजान शक्ति को देते रहते हैं! अरे वो शेर है न सुदर्शन फ़ाकिर साहब का... 'सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं, जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं'। लोग ईश्वर के नाम पर पता नहीं कितने आडम्बर पालते हैं! दान पत्र में डालने से पहले नहीं सोचते लेकिन मंदिर से निकल कर दान करने के समय सारा तर्क वापस आ जाता है। बड़ा ढोंग है भाई! मार्क्स ने धर्म को दमन का माध्यम कहा है। ख़ुदा को स्वार्थ सिद्ध करने का ज़रिया बना लिया है बस...और फिर मेरी ख़िलाफ़त ये ईश्वर oके भरोसे बैठे रहने की मानसिकता से और किसी के दुःख को 'बुरे कर्मों के फल' के तर्ज पर उसका औचित्य साबित करने वालों से भी है..."कायर मन कहुँ एक अधारा, दैव दैव आलसी पुकारा!"
बिपिन: दोस्त पहली बात तो ईश्वर को धर्म की संकीर्णताओं में मत सीमित करो। ईश्वर तर्क का नहीं आस्था और विश्वास का विषय है। शेर तो वसीम बरेलवी साहब का भी है... 'सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का, जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है'। और मित्र इसे कटाक्ष ही समझना...क्योंकि कटाक्ष ही है। (बिपिन हँसते हुए बोला)
मौलिक: समस्या है इंसान का सत्य से पृथक हो जाना। विश्वास और श्रद्धा स्वयं को हर अवांछित सत्य से अपरिचित रखने का कार्य करते हैं।
बिपिन: नहीं! हमेशा तो नहीं करते। विश्वास में बहुत शक्ति है, व्यक्ति का ईश्वर में विश्वास, ईश्वर के साथ होने की ज़रा सी अनुभूति उससे असंभव लगने वाले कार्य भी करवा लेती है। और यदि ऐसा है तो इसमें बुरा ही क्या है?! 'विश्वास फलं दायकम'। इतनी बड़ी सृष्टि, धरती और आकाश, गणित और अर्थशास्त्र, तुम और मैं...सब मात्र एक संयोग नहीं है मेरे लिए। इन सबको, तुमको और मुझको कोई एक सूत्र में बांधे हुए है। शंका और जिज्ञासा करके उस तक पहुंचा जा सकता है लेकिन निरंतर शंकालू होकर नहीं। मात्र तुम्हारे अनुभव न करने से तुम उन सब को झुठला तो नहीं सकते जिन्होंने ईश्वर को अनुभव किया है।
मौलिक: मतलब घूम फिर कर बात आ गयी कि जिसने अनुभव किया वो माने और जिसने अनुभव नहीं किया वो नकारे। मैं चाहता हूँ अनुभव करना...करवाओ मुझे।
बिपिन: विरोधाभास यही है कि हम अपने तरीके नहीं बदल सकते बल्कि चाहते हैं कि वो स्वयं उपस्थित होकर अपना अस्तित्व सिद्ध करें। आस्था, विश्वास, ईश्वर पर सवाल उसके उत्तर के लिए किया जाना चाहिए पूर्वाग्रह साबित करने के लिए नहीं!
मौलिक: मैं तो इन सब में पड़ना ही नहीं चाहता! मेरी कर्मभूमि में सिर्फ कर्म का ही वास है, जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है। अप्रत्यक्ष की खोज में, प्रत्यक्ष को नकार कर इस मानव जीवन को व्यर्थ करूँ?! हास्यास्पद है ये तो।
बिपिन: भाई तुम और मैं दो विचार धाराएं हैं! ये संघर्ष तो सदा का है। मेरे लिए तो ये संघर्ष भी इस बात का परिचायक है कि तुमसे और मुझसे परे भी एक वास्तविक सत्य है। हर बार ख़ुदा के हिस्से की मिठाई खा सकते हो लेकिन अस्तित्व नकार दोगे! हास्यास्पद तो ये भी है।
मौलिक: अच्छा ठीक है! आज के लिए इतना बहुत है...संघर्ष तो चलता रहेगा पर आओ पहले खुशी बाँट लें। चलो कुछ बेहतरीन चीज़ बनवाओ घर पर।
बिपिन: बिल्कुल बिल्कुल! आओ चलें, वैसे भी बड़ी देर से निकला हूँ।
(दोनों मुदित होकर बतियाते हुए घर को निकल लेते हैं)