अशोक ने कंधे पर थपकी मारते हुए बोला,"और गुरु?! कैसा रहा?"
सुधीर का गला रुध गया पर उसने अपने आप को सँभालते हुए जवाब दिया."इस बार भी हम चूंक गए!"
"हम्म...चलो कोई नहीं, अपने हाथ में तो केवल परिश्रम है बाकी तो सब उसकी मर्जी"
सुधीर का तीसरी बार सिविल सेवा परीक्षा के दूसरे चरण में नहीं हुआ। उमीदों का भार उसे निचोड रहा था और यही अल्लाहाबाद यूनिवर्सिटी का छोटा सा कमरा अब काटने को दौड़ता था, जो एक समय में उसकी महत्वकांक्षाओं का बक्सा था। पिता जी का पत्र वहीं मेज़ पर रखा था....संघ लोक सेवा आयोग की किताबों के साथ, और अंतिम पंक्ति थी कि,"...खर्च भेजना संभव नहीं है, घर आ जाओ"। बात बहुत कठोर थी और सुधीर के लिए निर्णय लेना उतना ही आसान था। घर लौटने पर नउम्मीद चेहरों की उम्मीद तो थी पर बेरुखी की नहीं!
"अम्मा! बाप्पा का ये रवैया बहुत गलत है, हमे बहुत कष्ट होता है...!", इतना ही कहना उसके बस में था और इसी से वह अपने उद्गार बिखेर कर शांत हो जाता था।
दिनचर्या सधी हुई थी। सुबह उठना, नहा-धोकर खाना और फिर अपनी गीता की छोटी किताब लेकर घर के पिछवाड़े में आम के पेड़ के नीचे यथाशक्ति अध्ययन करना यह न सिर्फ उसकी रूचि के कारन था अपितु विचार शून्यता से अपने आप को बचने के लिए उसकी आवश्यकता भी थी। सामाजिक समस्याओं की मार से पीड़ित लोगों से हम तब तक सही मायनों में सहानुभूति नहीं रख पाते जब तक की वो अखबार के पन्नों की काली स्याही से निकल कर आपबीती न बन जाएं और बेरोजगारी एक सामाजिक समस्या है।
सुधीर अक्सर ऐसे ही आत्मचिंतन में खो जाया करता था और एक दिन ऐसे ही किसी विचार के अधीन होकर आवाज लगते हए बोला, "अम्मा...ओ अम्मा। अरे हम जरा बभनान तक जा रहे हैं, रात हो जाएगी आने में... खाना रख देना हमारा"
घर से निकलते समय उसमे उतनी ही दिशा हीनता थी जितनी कि एक हवा से गिरते पते में होती है। बभनान सुधीर के गाँव से लगा एक बड़ा बाजार था, जहाँ हर छोटे बड़े काम के लिए जाना होता ही रहता था और इसी के चलते वहाँ उसकी अच्छी पहचान भी थी। बात-व्यवहार में अच्छे होने के करण उसकी गिनती जवार के गंभीर लोगों में होती थी और लोग उसका आदर करते थे।
अपनी दूकान की तरफ आता देख मसीउल्ला ने जल्दी से सुधीर के लिए कुर्सी लगवा दी और मुस्कियाते हुए बोले, "आओ आओ... आज इधर कहाँ रास्ता भूल गए "
"अरे आप भी यूँ शर्मिंदा करते हैं!... अब हम कहीं बहुत ज्यादा आते जाते नहीं हैं... वहीं खटिया पर गीता अध्ययन करते हैं कि बस मन शांत रहे..
"ये तो बहुत अच्छा करते हो लेकिन असली मन की शांति रूपिए में है मियां, उसका कुछ जगाइ कर रहे कि नहीं?", समीउल्लाह भाई सुधीर को चाय पकड़ते हुए बोले।
"इसीलिए तो आपके पास आए हैं...कुछ रास्ता बताइये। दो महीने पहले सचिवालय में समीक्षा अधिकारी के पद के लिए इम्तिहान दिए थे, उसका परिणाम नहीं घोषित होने दे रहे हैं, पता नहीं कैसे लोग हैं। फिलहाल तो उसी की आस है।" चाय जितनी गरम थी उसके मन के भाव उतने ही ठन्डे। हम तब तक हिम्मत बांधे रख सकते हैं जब तक स्वयं के प्रति जवाबदेही का समाधान हो सके और सुधीर का अंतःकरण अब अपने ही सवालों पर मूक रहने लगा था।
उस दिन वह बड़ी देर तक मसीउल्ला की दुकान पर बैठ कर बतियाता रहा और चर्चा इस पर आकर की कि,"मियां दवाई के व्यापर में बहुत पैसा है।"
ऐसा नहीं है की सुधीर ने ये पहली बार सुना था पर ये अवश्य सत्य है कि उसने इसमें बेहतरी के लिए अवसर पहली बार देखा। चूंकि बभनान में अब पैर जमाना बहुत मुश्किल था इसलिए उसने पास ही के एक कसबे बस्ती का रुख किया। सुधीर एक प्रबल व्यक्तित्व का धनी था और इसको उपयोग में लाते हए उसने एक छोटा कमरा वाजिब और कम किराये पर उठा लिया। कुछ खुद पूंजी और कुछ समीउल्लाह मियां की आर्थिक सहायता के वादे ने इतना तो क्र ही दिया कि पहली बार साबुन के गत्ते उसकी दूकान के सामने उतार दिए गए। दुकान दूसरे माले पर थी और एक छोटी सीढ़ियों की कतार बगल ही से जाती थी। नीचे लाला जी की परचून की दूकान थी। लाला जी स्वभाव से सज्जन और बोली के खरे इंसान थे। सुधीर बड़ी देर तक किसी कामगीर की ताक खड़ा रहा कि कोई मिले और कुछ ले देकर सामान ऊपर रखवा दे। लाला जी उसके इस सुकुमार रवैये को देख कर मुस्कियाते रहे। बड़ी देर बाद सुधीर ने कुछ सोचा और एक एक करके गते ऊपर पहुँचाने लगा और तब लाला जी आवाज़ लगते हए बोले, "बाबू ! अब तुम्हारी दूकान चल जाएगी..." और स्नेहभाव से हसने लगे। पहले तो उसे भी कुछ कम ही समझ आया पर फिर उसके जेहन में बात उतर गयी। अगले चार महीने सुधीर ने अखंड निष्ठा और लगन का परिचय दिया और धीरे-धीरे बाजार में अपना नाम बना लिया।
और फिर एक दिन सुधीर के पुराने मित्र, रामफेर द्विवेदी जी, का पत्र आया कि." बधाई हो मित्र! हम मुकदमा जीत गए!....जल्द ही अपॉइंटमेंट लेटर तुम्हारे पास भी आ जायेगा।"
अब इस बात को बहुत दिन हो गए और सुधीर ने मुस्कुराकर वही 23 साल पुराना पत्र बड़े करीने से बगल की मेज के दराज में रख दिया और खुद आँख बंद कर आत्मचिंतन में लीन हो गया। उसे स्वयं में खो जाना पसंद था। वो अक्सर ही बहार की आवाजें कानों के दरवाज़े पर रोक कर भीतर विचारों का पर्दा लगा लिया करता। उसके लिए सफलता का एक ही पैमाना था.... संतुष्टि! और सुधीर खुद को अपनी परिस्थितयों से संतुष्ट महसूस करता था।
ताज महल जैसे अजूबे की शुरआत भी एक विचार से हुई थी, मसीउल्ला की दुकान पर आया वो विचार ही सुधीर का अवसर था जो उसे उसकी निर्धारित सफलता के विजयपथ पर ले गया |