कॉलेज क्या है? एक भवन! या प्रयोगषालाओं और कक्षाओं का समूह?
जी नहीं!
कॉलेज एक जगह मात्र तो हो ही नहीं सकता...
मिट्टी के लोथड़े को आकार देने वाला कुम्हार,
ज़िम्मेदारियों से ख़ुशियाँ खरीदने की कला सिखाने वाला त्यौहार है,
कॉलेज!
इसके रूप अनेक हैं, कार्य अनेक, अर्चन अनेक, सिद्धियां अनेक ||
जो लोग कॉलेज के अंतिम पड़ाव पर हैं, वो भाव विह्वल होकर कहते हैं-
"मैं क्या हूँ, कुछ भी तो नहीं
पर जो हूँ, बेहतर हूँ उस बच्चे से
जो झोला उठाए चला आया था
अनजान शहर में अनजानों के बीच।
वो अनजान लोग कब दोस्त बने, कब दोस्त से परिवार
इसका इल्म तो मुझे भी नहीं।
ना ही यह मलूम है की डर डर कर चलना छोड़कर,
कब निर्भीक दौड़ना सीख गया।
कुछ सपने ही तो थे ना पूँजी के नाम पर,
कब उन कांच के टुकड़ो को जोड़कर,
दर्पण बनाना सिख गया।
हम आए तो थे खाली हाथ, अब मुट्ठी भरकर जा रहे हैं
और छोड़ जा रहे हैं आने वाली नस्लों के लिए यह संदेश-
गलती करने का डर न छोड़ना ही सबसे बड़ी गलती है।"
ग़ौरतलब! यह साल कुछ ख़ास था।
आज चौमासा हो आया है इस विरह को,
जिसने जुदा कर दिया,
जिस्म को रूह से,
घोसलों को परिंदों से,
महफिलों को तालियों से,
लज़्ज़त को रुमालियों से
और अलग कर दिया इश्क़ को वस्ल से,
इमारतों को कहानियों से,
लेक्चर्स को झपकियों से।
यह फ़ेहरिस्त लंबी है, अधूरी है,
उदासीन है तो आशावान भी, माकूल है तो बेमानी भी।
यूँ तो मैं ईश्वर को नहीं मानता
किंतु अगर वह बसता है मूर्तियों में
तो मैं जाना चाहूँगा मेरी कक्षाओं के मध्य स्थित
माँ शारदा के मंदिर में और कहूँगा
"मिरी रुस्वाइयों से यूँ न ख़फा हो, न यूँ सजा दे
बुला वापस की चलूँ थोड़ी दूर, चलूँ थोड़ी दूर "