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[गजेन्द्र अंजलि के साथ बैठे हैं। हाथ में एक सूची है। अंजलि के पास फ़ोन डायरी है।]
अंजलि(फ़ोन पर) : जी बुआ जी। हाँ हाँ, फिर भी एक बार देख लीजियेगा। मिल जाए कोई पुरानी एल्बम में। ठीक रखती हूँ। प्रणाम।
(दादाजी की तरफ निराशा से देखती है)
गजेंद्र : नहीं मिला क्या इसके पास भी? बताओ बुआ की तस्वीर नहीं रखी है। बोलो अपने पिताजी के सामान में ढूंढे। अपनी बहन की तस्वीर नहीं होगी क्या उनके पास। बताओ इनके सारे मायके वालों का नंबर मिला लिया। कहीं एक तस्वीर नहीं रखा कोई। सब भूल जाओ मेरी सरला को! बहुत खूब!
अंजलि : मैंने सबको बोला तो है ढूंढने की कोशिश करने। कहीं न कहीं तो मिल जाएगी। और कोई याद आ रहा जिसके पास हो?
(गजेन्द्र कुछ क्षण आँख बंद करके सोचते हैं)
गजेन्द्र : हमारी भांजी रनिया के पास हो सकती। इसकी ही शादी में तो पहली बार फ़ोटो वीडियो वाला आया था। हमको याद है इतना खर्चा की थी दीदी, खैर इकलौती बेटी जो थी उसकी। मंच सोफा सब था! उस ज़माने में बड़ी चीज होती थी। सब उसपे बैठ के खिचवाये थे फ़ोटो। एक तस्वीर के लिये आधा दिन सजी थी तेरी दादी, इतना अपनी शादी में नहीं सजी थी।(हँसने लगते हैं…)
बताओ उसके बाद पैंतीस साल में कितनी शादी में गया कुछ याद नहीं। पर ये शादी याद है अपनी शादी वाला उल्लास था इसमें।
(अंजलि डायरी में ढूंढती है।)
अंजलि : उनका नंबर तो नहीं है।
गजेन्द्र : रुक मुझे दूसरी डायरी देखने दे। जीजाजी का फोन नंबर होगा उनसे मांग लेंगे रनिया का।
(अलमारी में ढूँढ़ते हैं फिर हताश हो जाते हैं)
गजेंद्र : एक सामान नहीं मिल रहा जब से घर बदले हैं बताओ। दीदी जब तक थीं बात हो जाया करती थी उधर के परिवार से भी। एक तो रविन्द्र में एक ज़रा समझ नहीं है रिश्तेदारी निभाने की। मेरी तो उमर हो गयी पर उसको तो रखना चाहिए हाल चाल नंबर सब। नालायक कहीं का! रवि ऐ रवि!
अंजलि : होगा उनके पास, मैं माँग के लाती पापा से।
(आर्यन भीतर आता है)
आर्यन : क्या हुआ? ऐ मोटी! काहे गुस्सा दिला रही दद्दू को।
अंजलि : रानी बुआ का नंबर नहीं मिल रहा।
आर्यन : वही ना अयोध्या वालीं। हाँ तो मेरे और माँ के म्यूच्यूअल फ्रेंड लिस्ट में हैं वो। रुको मैसेज करता।
(सुलोचना अंदर आती है)
सुलोचना : चिंता मत कीजिये बाऊजी मैं बोलती हूँ इनसे। वैसे ये चित्रकार बुलवाए हैं देखिये कुछ बना रहा है वो अभी।
गजेंद्र : कैसे भी ले आओ, बस कहीं से एक बार देख लूँ। जीवन की इतनी घटनाएँ याद आ जा रहीं रह रह कर पर उसका चेहरा नहीं याद आता, बताओ बेबसी कैसे समझाएँ कोई समझता ही नहीं है...
अंजलि : नहीं नहीं मैंने खूब सोचा मैं समझती हूँ। कई बार मुझे भी जब गाने की धुन याद रह जाती है पर गाना नहीं याद आता ना तो बहुत बेचैनी होती है।
आर्यन : हाँ! यहाँ दादी की फोटो नहीं याद आ रही उन्हें और तुम अपना गाना डॉट कॉम खोल के बैठ जाओ!
अंजलि : मैं उदाहरण दे रही थी। दिमाग ना हो तो लगाओ मत!
सुलोचना : लड़ लो तुम दोनों अभी यहीं लड़ लो!
(इसी बीच रविन्द्र और रामू अंदर आते हैं। रविन्द्र के हाथों में आर्टिस्ट का बनाया हुआ स्केच है)
रविन्द्र(सुलोचना से) : कुछ हुआ? बाऊजी अब कैसे हैं?
सुलोचना : खुद देख लीजिये।
रामू : वाह! क्या सुंदर स्केच बनाया है। मैं अगर किसी प्रजा का राजा होता तो अभी आर्टिस्ट के गले में मोतियों का हार डाल देता। (रामू गजेंद्र की तरफ मुड़ता है) बाऊजी एक बार स्केच तो देखिए, क्या खुद में ही बोले जा रहे।
रविन्द्र : बाऊजी इधर देखिए जरा। उतना सही तो नहीं है, मुझे अम्मा की शक्ल याद है पर चन्दर जी इतना ही बना पाये। देखिए तो जरा एक बार।
गजेंद्र : वाह! नवाब साहब वाह! सैफ़ अली खान हो ना तुम जो शर्मिला टैगोर को अम्मा कह रहे।
रामू (आर्यन से) : तुम्हारे दादा को अपनी पत्नी की शकल याद नहीं पर शर्मिला टैगोर खूब याद हैं।
(आर्यन नज़र अंदाज़ करता है)
गजेंद्र : ...आज लग रहा कि सरला कितनी बदनसीब है। इतनी हँसी खुशी प्यार सब बाँटी और आज दुनिया में कोई याद नहीं रखा है उसे। ना भाई, ना बेटा, और अब उसका अपना पति भी चेहरा भूल गया उसका। पूरी ज़िंदगी बस खट खट के काम करते सबका ध्यान रखते, एक छोटा सा किचन और दो कमरे के घर में निकाल दी। मेरा चूल्हा चौका करने में जिंदगी झुलसा दी। एक दिन कैंसर पता चला और फिर चली गयी। कुछ दिन में हम भी ना रहेंगे फिर कोई ना रहेगा उसका नाम तक लेने वाला। पूरा जीवन निरर्थक रहा!
(गला भर आता है)
सुलोचना : बाऊजी इतना निराश मत होइये। यह हँसता खेलता परिवार सब उन्हीं की तो निशानी है। ऊपर से देखती होंगी तो खुश होती होंगी कि जिस परिवार को सहेजा बनाया वो फल फूल रहा है।
गजेंद्र : सच कहती हो बहू!
ऊपर जा के बैठ गई हैं कब से,
कौन जाने कैसी हैं?
जाने क्या करती हैं,
वहाँ ऊपर से तो सब दिखता होगा,
चुप चाप सब देखने की आदत नहीं थी उसकी,
सरपट रेल सी बोलती चली जाती थी,
छोटी छोटी बात पर खिलखिला कर हँसने लगती थी।
पर रोती थी तो एकदम चुपचाप,
पंद्रह सोलह वर्ष की थी जब शादी करके हमारे घर आयी थी,
अपने साथ एक गाय और उसका एक बछड़ा लाई थी,
बहुत खेलती थी उनके साथ बहुत प्यारे नाम रखे थे उसने उनके पर अब याद नहीं,
कुछ समय बाद मेरी नौकरी लग गयी और हम शहर आ गए,
जब गाँव जाते थे वो तुरंत उनसे मिलने चली जाती थी,
जब खबर आई कि रजनी नहीं रही
कितने दिन सरला टेसू बहाती रही,
दुःख हमे भी था पर इस बात का,
की अब गाँव में खीर नहीं मिलेगी उसके दूध की।
(हँसते हैं) शायद इस रवि में असंवेदनशीलता मुझ से ही आयी है।
अंजलि : रजनी कौन?
गजेंद्र : अरे वही गाय, लो नाम याद आ गया,
खैर तब तो इतना दुःख समझने की क्षमता कम थी,
फिर एक दिन खुद चली गयी,
हम पुरुषों को तो छुप छुप कर ही रोना होता है,
कितना रोया कब तक रोया क्या पता,
इतना विवश, इतना लाचार कभी नहीं था
पिछले महीने पिंकी की शादी में बहुत अच्छा लगा देख कर,
कि कुल कितना फल फूल रहा है,
पर इस भरे पूरे घर में भी थोड़ी जगह सूनी है,
खाने की टेबल पर एक कुर्सी खाली लगती है,
मुझे सुबह उठाने के लिये बिस्तर पर उसकी जगह नहीं है,
पर कभी कभी ये सोच कर मुस्कुराता हूँ,
कि शायद अब वहाँ रजनी और उसके बच्चों के साथ खेलती होगी,
अब भी बेढंगे तरीके से बाल बांधती होगी
कानों में बड़े बड़े झुमके झूलते होंगे,
अब भी ठेठ टूटे फूटे गीत मिठास भर के गाती रहती होगी,
तुम सब की नौटंकी देख कर बहुत हँसती होगी,
बस यही चिंता है कि वहाँ किसका सर खाती होगी बड़बड़ करके,
मुझसे जानबूझकर रूठ जाती थी मस्ती में,
वहाँ रूठती होगी शिकायत करती होगी तो कौन मनाता होगा,
वहाँ चुपचाप रोती होगी तो कौन आँसू पोंछता होगा...
(कुछ क्षण सब मौन)
गजेंद्र : (मायूस आवाज़ में) रहने दो बेटा, अब ज़रूरत नहीं। कुछ दिनों में हम भी प्रस्थान करेंगे तब मिलना हो ही जायेगा उनसे। जो हो गया वो तो हो गया, वो तस्वीर थी तो आखिर पुराना कागज़ ही। एक पीढ़ी से ज़्यादा किसके घर ही टंगती है किसी इंसान की तस्वीर। मैं भी कौनसा देखने आऊंगा कि मुझे याद रखा गया या नहीं।
(गजेंद्र ऊपर देखते हैं सब सर झुकाये खड़े हैं।)
गजेंद्र : अरे निराश मत हो चलो आओ थोड़े किस्से ही सुन लो क्या पता कहते सुनते याद आ ही जाएँ। बैठो बच्चों ऐ आर्यन तब से फोन में घुसा है क्या कर रहा है?
आर्यन (फ़ोन पकड़ा देता है) : रानी बुआ कुछ भेजी हैं।
गजेंद्र की आँखें भर आती हैं। भावुक होकर आर्यन का माथा चूम लेते हैं। फ़ोन को सीने से लगाये रखे हैं।
========= The End =========